Book Title: Gyandhara Tap Tattva Vichar Guru Granth Mahima
Author(s): Gunvant Barvalia
Publisher: Arham Spiritual Centre

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Page 89
________________ BappaMalaik जैन धर्म में मौन साधना SISISISISI318 डॉ. विनोद कुमार तिवारी (डॉ. विनोद कुमारजी यु. आर. कॉलेज रोजरा (बिहार) हेड ऑफ धी डीपा. हीस्ट्री हैं। Rise and decline of Jainism in Bihar विषय में Ph. D. किया है। देश-विदेश में कन्फरन्स अटेन्ड किया है । भारतीय दर्शन, परम्परा और धार्मिक मान्यताओं में मौन साधना या मौन व्रत को पवित्र आस्था - कर्म के रुप में स्वीकार किया गया है और इसे मानव जीवन के आधारभूत कर्तव्यो में से एक माना गया है। यहाँ मौन का तात्पर्य मात्र इसके शाब्दिक अर्थ 'बातचीत नहीं करने से नहीं है, बल्कि सही मायने में यह हमारे आध्यात्मिक विकास ज्ञान अर्जन की प्रकिया से भी जुड़ा हुआ है। प्राचीन ऋषियों, ज्ञानियों और सन्तों के दर्शन और उपदेशों पर चिन्तन करने और उन्हें अपने जीवन में उतारने की तैयारी के लिए हम जिन अवसरों का उपयोग कर सकते हैं, उनमें मौन के दिन के सम्पूर्ण समय का उपयोग किया जा सकता है। इन दिनों में हम अपनी वाणी जैसे इन्द्रिय पर नियंत्रण रखते हैं, जिससे हमारे अन्दर अतिरिक्त उर्जा की वृद्धि होती है, जिसकी सहायता से हम अपने व्यक्तित्व को अध्यात्म और नैतिक गुणों से अधिक से अधिक करीब लाने में सहायक हो पाते हैं। मानसिक विकास के साथ ही साथ मौन रहने की अवधि में अर्जित शारीरिक उर्जा को हम परोपकार, सेवा, समाज, सुधार, धार्मिक मानवीय सत्संग में लगा सकते हैं, ताकि मानवता की भलाई हो सके । मौन रहने की परम्परा हमारे देश में प्रारंभ से ही रही है। इसके लिए समय का कोई निर्धारण नहीं है। मौन की अवधि कुछ घंटो की हो सकती है, एक या इससे अधिक पहर की हो सकती है अथवा कुछ दिनों या सप्ताहों तक चलाई जा सकती है। ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं, जिसमें महीनो वर्षों तक मौन रहने की बात आई है। मौन साधना और आत्म-स्थिरवाद को जीवन का अंग बनाकर हमारे ऋषियों, मुनियों और आध्यात्मिक गुरुओं ने पवित्र समाधी तक को प्राप्त किया है। हमारे देश में प्राचीन काल से ही यह कथन बहुत प्रचलित है कि मौन ढेर सारी समस्याओं का समाधान ढूँढ देता है और उपरोक्त कथन सभी धर्मों में वर्णित मौनं की परिभाषा का निष्कर्ष ही कहा जा सकता है। भारतीय धार्मिक परम्पराओं के अन्य अंगो की तरह ही जैन धर्म एवं दर्शन १७० Blessespass तप तत्त्व विचार Besisecseeeeee में भी मौन साधना पर गहराई से विचार किया गया है तथा उसकी व्यापकता पर बहुत चर्चा की गई है। यहाँ मौन रहने का पर्व मौन व्रत या मौन एकादशी के नाम से प्रचलित है, जिसकी महत्ता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस पर्व को जैन धर्म के पर्युषण पर्व के बाद दूसरा स्थान प्रदान किया गया है। यह पवित्र दिवस भारतीय तिथि तालिका में मार्गशीर्ष सूद ग्यारह को पड़ता है और सम्पूर्ण जैन एवं अन्य समुदायों के सदस्यों के द्वारा विधिपूर्वक मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि जो साधक इस पर्व को ग्यारह वर्ष और ग्यारह महीनों तक सम्पूर्ण विधि विधानों से मनाता है, उसे जीवन की सर्वोत्तम उपलब्धि “मोक्ष” की प्राप्ति होती है। जैन साहित्य इस दिवस को इसलिये भी पवित्र और महत्वपूर्ण मानते है कि इसी दिन तीर्थंकरों के 150 कल्याणक हुए। ऐसे तो जैन दर्शन में असंख्य चौबीसियों का वर्णन किया गया है, पर यहाँ इस सन्दर्भ में हम भूत, वर्तमान और भविष्य के मात्र पांच कल्याणकों का ही उल्लेख करेंगे, जिसका संबंध इस पर्व से है। कहा गया है कि इसी दिन जैन धर्म के अठारहवें तीर्थंकर मल्लिनाथ का जन्म, गृहत्याग और केवल ज्ञान प्राप्त हुआ था तथा बाइसवें तीर्थंकर नेमिनाथ ने केवलज्ञान की उपलब्धि की। इस प्रकार इस दिन तीन तीर्थंकरों के पाँच कल्याणक हुए। भारत क्षेत्र में अन्य चौबीसियों में से भारत क्षेत्र और ऐरावत क्षेत्रों में पाँच कल्याणक हुए। इस प्रकार पाँच कल्याणकों को भारत क्षेत्र में हुए अन्य पाँच कल्याणकों के साथ गुणा करने पर (5x5) भारत क्षेत्र के कुल कल्याणकों की संख्या 25 हो जाती है। उधर पाँच ऐरावत क्षेत्रों में पच्चीस कल्याण हुए। इस प्रकार सभी क्षेत्रों के 50 कल्याणकों को भूत, वर्तमान और भविष्य के चौबीसियों से जोड़ा जाए तो यह संख्या 150 हो जाती है (50+50+15=150 अथवा (50x50 = 150) । यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि पाँच महाविदेह क्षेत्रों में कोई चौबीसी नहीं हैं । जैन मौन एकादशी के सम्बंध में जैन साहित्य में एक प्रसंग का जिक्र हैं, जिससे इस पर्व की महानता को सहज ही समझा जा सकता है। वर्णन है कि अपने भ्रमण क्रम में तीर्थंकर नेमिनाथ द्वारका शहर के बाहर एक वन में प्रवास कर रहे थे। जब उसी नगर में रह रहे पूर्व जन्म के उनके चचेरे अग्रज कृष्ण वासुदेव को उनके इस वन में आने का शुभ समचार मिला, तो वे अपने कई अनुयायों के साथ नेमिनाथ के उपदेश सुनने तथा शिक्षा ग्रहण करने वहाँ पहुँचे। भगवान के प्रवचन समाप्ति के बाद कृष्ण वासुदेव ने तीर्थंकर नेमिनाथ से विनम्र निवेदन किया कि उनकी एक १७१

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