Book Title: Gyandhara 05
Author(s): Gunvant Barvalia
Publisher: Saurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
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अर्थात् जिस भोजन से क्रोध-कषाय, हिंसात्मक भाव उत्पन्न हें । इनमें जमीकंद (आलू, भूला, शक्करकंद, प्याज, लहसून आदि) का समावेश होता है । प्याज लहसून स्वयं दुर्गंध युक्त हैं । ये तो जमीकंद और बदबू दोनों के मिश्रण है । एक प्रश्न हो सकता है कि जमीकंद क्यों नहीं खायें ? तो इतना ही जान लो कि जमीकंद में अनंत त्रसजीव विद्यमान रहते हैं । उन्हें निकालने में अनंतगुना जीवों की विराधना होती है । यह कंदमूल सदैव सचित रहते हैं । इस कारण हिंसा का दोष लगने के कारण भी जैन-भोजन में ऐसे पदार्थों का निषेध किया गया है ।
इसी संदर्भ में जल-गालन एवं रात्रि-भोजन निषेध भी महत्त्वपूर्ण है । हम धार्मिक एवं वैज्ञानिक दृष्टि से परीक्षण करें तो पानी की एक बूंद में ही अनेक त्रसजीवों की उपस्थिति रहती है । अतः उन जीवों की विराधना न हो इस दृष्टि से हम जल को नियत सिद्धांतो के अनुसार गालन करते हैं और जीवानी को पूरी रक्षा के साथ पुनः जल में ही पहुँचाकर उनका जीवन बचाते हैं । मैं मानता हूँ कि फिल्टर्ड पानी, इक्वागार्ड या अन्य साधनों से पानी तो स्वच्छ मिल जाता है, पर जीवों की विराधना होती हैं, क्योंकि उन्हें पुनः जल में नहीं पहुँचाया जाता । इसी संदर्भ में अति शीतल पेय-जल वर्जित हैं, अतः गरम-उबाला पानी ही योग्य माना है ।
रात्रि-भोजन तो जैनमात्र के लिए पूर्ण हिंसात्मक है । जो लोग यह तर्क करते हैं कि - 'वर्तमानकाल में पूर्ण प्रकाश होने से रात्रि में खाना क्या बुरा है ?' पर वे शायद न तो धार्मिक कारण जानते हैं न वैज्ञानिक । यह तो सर्वज्ञात तथ्य है कि - 'अनंत संमूर्छन जीव सूर्यास्त के समय शीतलता के कारण जन्म लेते हैं और उनका आकर्षण गरमी की ओर होता है - वे प्रकाश की ओर भागते हैं और बिजली के प्रकाश के साथ गरमी के कारण मरते हैं' ऐसे सूक्ष्म जीव हमारे भोजन में भी गिरते हैं । आप बरसात आदि ऋतु में स्वयं देखें कि कितने मच्छरादि भिनभिनाते हैं और भोजन में भी गिरते हैं । जैन शास्त्र में ही नहीं हिन्दु शास्त्र में भी रात्रिभोजन को मांस-भक्षण ही माना जाता है । अतः जीव-हिंसा से बचने के लिए जैनों को रात्रि में भोजन करना ही नहीं चाहिए । ज्ञानधारा-
प रख ८२ रबरन साहित्य ज्ञानसत्र-५)