Book Title: Gyandhara 05
Author(s): Gunvant Barvalia
Publisher: Saurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
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रात्रि-भोजन करने वाला भक्ष्याभक्ष्य का विवेक नहीं रखता, अतः हर प्रकार की हिंसा का भागीदार बनता है और वैसे ही हिंसात्मक उसके विचार बनते हैं ।
जैनशास्त्रों में उदम्बर फल (पाँच) खाने का सर्वथा निषेध इसीलिए है कि इन फलों में साक्षात् जीव बिलबिलाते देखे जाते हैं । इनके अन्तर्गत वड़, पीपल, ऊमर, कठूमर एवं अंजीर को माना है । इनका भक्षण सदैव हिंसात्मक ही है । इसी परिप्रेक्ष्य में बरफ,
ओला आदि पानी के संघटित रूप का सेवन भी हिंसात्मक भाव हैं । इसी संदर्भ में बहुबीजक, फल-सब्जी वर्जित हैं, तो द्विदलभोजन भी वर्ण्य है । इन सबके त्याज ने का भाव मात्र द्रव्यहिंसा से बचना है । यदि हमारी जीवन-शैली इन अभक्ष्य पदार्थो के सेवन से बचेगी, तो हम भावहिंसा से भी बच सकेंगे ।
जैन जीवन-शैली में द्रव्य-हिंसा का पूर्ण रूपेण निषेध किया है । इसी संदर्भ में मांसाहार का संपूर्ण त्याग आवश्यक है । साथ ही दूषित भावों के कारण शिकार करना या जीवों के अंग, चर्म का व्यापार भी पूर्ण निषेध है । चमड़े का उद्योग, मछली पकड़ने के जाल आदि का व्यापार हिंसा को ही प्रोत्साहन देना है । जैन जीवन-शैली से जीने वाला जैन पर्यावरण का परम रक्षक होता है। वह निरर्थक कभी भी वृक्षों को नहीं काटता, वह जल-वायु, पृथ्वी, अग्नि एवं वनस्पति का सदैव रक्षण करता है, क्योंकि जैन धर्म इन पाँच तत्त्वों में भी जीव का विद्यमान होना मानता है । जैन उन सभी पदार्थों, सौन्दर्य प्रसाधनों का त्याग करता है, जिनसे उत्पादन में जीवहिंसा होती है । यह उसका जीवों के प्रति करुणा भाव है। अरे ! परिमाण व्रत धारण करके वह भोज्य-पदार्थों का नियमन करता है । जल आदि के उपयोग में परिमाण करता है । वह तो सम्पति, धन-धान्य, पशु आदि रखने में संयम धारण करता है, तो श्रम से अर्जित सम्पत्ति का दान कर जनसेवा-पशुसेवा में लगाता है । जैन जो व्रताराधना करते है उनमें उपवास, एकासन आदि में बोलने, चलने में भी संयम धारण कर अहिंसा का ही पालन करने का ध्येय रखते हैं । भोजन उनके लिए शरीर-साधन का साधन होता है, भोजन के लिए जीते नहीं है अतः रसी पालन करके ऊनोदरी | ज्ञानधारा-
पर ख ८३ बरन साहित्य ज्ञानसत्र-५ )