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गुरु चिंतन (१०) 'समय' शब्द का अर्थ- सम् + अय = समय या सम् अर्थात् युगपत् एकसाथ तथा अय् अर्थात् गमन करना या परिणमन करना तथा ज्ञान करना। इस तरह जो एक साथ परिणमन करे तथा जाने उसे समय कहा है। ऐसा स्वरूप जीव का ही है, अत: जीव को 'समय' कहते हैं।
(११) जीव पदार्थ हमेशा परिणमन स्वभाव में विद्यमान रहता है, अत: वह उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य की एकतारूप अनुभूति लक्षण रूप सत्ता वाला है।
(१२) इस परिभाषा में जीव को सत्तावान कहा है, उससे जीव का सर्वथा अभाव मानने वाले नास्तिक मत का तथा जीव को सर्वथा अनित्य माननेवाले बौद्धमत का निराकरण हुआ है। साथ ही उसे परिणामी या उत्पाद-व्यय वाला भी कहा है उससे सर्वथा अपरिणामी माननेवाले सांख्यमत का तथा सर्वथा नित्य माननेवाले नैयायिक एवं वैशेषिक मत का निराकण हुआ है।
(१३) जीव को चैतन्यस्वरूप, नित्य, उद्योतरूप, स्पष्ट दर्शनज्ञान ज्योतिस्वरूप कहा है, उससे जीव को ज्ञानाकार स्वरूप न माननेवाले सांख्यमतवालों का निराकरण हुआ है।
(१४) इसी तरह जीव को अनन्तधर्मों में रहने वाला एक धर्मी द्रव्य कहा है, उससे वस्तु को अनेक धर्मों से रहित मानने वाले बौद्धमतियों का निराकरण हुआ है।
(१५) द्रव्य को अपनी क्रमवर्ती पर्यायों तथा अक्रमवर्ती गुणों में प्रवर्तन करनेवाला सिद्ध किया है। उससे आत्मा को सर्वथा निर्गुण माननेवाले सांख्यमत का निराकरण हुआ है।
(१६) जीव अपने तथा पर के आकारों को प्रकाशित करने