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गुरु चिंतन
मात्र दिखलाता है, इसलिए उस एकाकार स्वरूप आत्मा का अनुभव करना चाहिए तथा पर्यायबुद्धि का एकान्त त्यागना चाहिए।
(४४) प्रमाण की विषयभूत द्रव्य-पर्यायमय वस्तु में द्रव्य स्वभाव की मुख्यता से अनुभव कराये वह द्रव्यार्थिक नय है तथा पर्याय का मुख्यता से अनुभव कराये वह पर्यायार्थिकनय है।
(४५) शुद्धनय समस्त भेदों को गौण करता है, वहाँ शुद्धनय के विषयभूत आत्मा के अनुभव में नयों की लक्ष्मी उदित नहीं होती है, प्रमाण का भेदविकल्प विलय होता है तथा निक्षेप समूह का विकल्प भी दिखाई नहीं देता है; अत: अनुभव में द्वैत भासित ही नहीं होता है, क्योंकि अनुभव अद्वैत तथा निर्विकल्प ही होता है।
गाथा-१४ (४६) शुद्धनय आत्मा को अबद्ध-अस्पृष्ट (बंध तथा स्पर्श से रहित) अनन्य, नियत, अविशेष तथा असंयुक्त ऐसे पाँच भाव रूप से देखता है। ऐसा देखना परमार्थ, भूतार्थ या सत्यार्थ है।
(४७) यद्यपि पर्यायदृष्टि से कर्मों से बद्ध-स्पष्टपना, अन्य अन्यपना, अनियतपना, विशेषपना तथा संयुक्तपना भूतार्थ है; तथापि पर्याय से हटकर स्वभाव के समीप जाकर द्रव्यदृष्टि या शुद्धनय की दृष्टि से देखा जाये तो ये पांचों ही भाव अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं।
गाथा-१५ (४८) जो अपने आत्मा को अबद्धस्पृष्टादि पांचों भावरूप देखता है या अनुभव करता है, वह सम्पूर्ण जिनशासन को देखता या अनुभव करता है।
(४९) सम्पूर्ण जिनशासन द्रव्यश्रुत तथा भावश्रुत रूप है। वहाँ शुद्ध आत्मा का निर्विकल्प स्वसंवेदन भावश्रुतज्ञान है तथा सविकल्प