Book Title: Guru Chintan
Author(s): Mumukshuz of North America
Publisher: Mumukshuz of North America

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Page 57
________________ गुरुचिंतन 55 (४०-४१) भोक्तृत्वनय और अभोक्तृत्वनय 'आत्मद्रव्य भोक्तृत्वनय से हितकारी अहितकारी अन्न को खानेवाले रोगी के समान सुख-दुःखादि का भोक्ता है और अभोक्तृत्व नय से हितकारी - अहितकारी अन्न को खानेवाले रोगी को देखनेवाले वैद्य के समान केवल साक्षी ही है।" 66 १. भगवान आत्मा में ऐसी योग्यता है कि वह अपनी भूल से अपने में उत्पन्न होने वाले सुख-दुःख एवं हर्ष शोक को भोगे अर्थात् वेदन करे, जिसे भोक्तृत्व धर्म कहते हैं और एक ऐसी योग्यता भी है, जिससे वह अपने में उत्पन्न होने वाले सुख - दुख एवं हर्ष - शोक को भोगता नहीं है, मात्र साक्षी भाव से जानता देखता है। इस योग्यता को अभोक्तृत्व धर्म कहते हैं । इन दोनों धर्मों को जानने वाला ज्ञान भोक्तृनय और अभोक्तृत्वनय है। २. कर्तृत्वनय और अकर्तृत्व में घटित होने वाली सभी विवक्षायें यहाँ भी समझ लेना चाहिए, क्योंकि कर्तापन और भोक्तापन एक साथ रहते हैं। ३. ज्ञानी को भी चारित्र की कमजोरी के कारण पुण्य-पाप के उदय में सुख-दुःख का वेदन होता है तो भी उस सुख - दुःख को पराश्रित परिणाम जानकर अपने स्वरूप को उससे भिन्न ही जानता है। यह भेद ज्ञान ही साक्षी भाव है, जिसके बल से वह सुख - दुःख को भोगते समय भी उनका ज्ञाता ही रहता है। ४. गुणी - अगुणी, कर्तृ-अकर्तृ तथा भोक्तृ-अभोक्तृ - इन छहों नयों के माध्यम से आत्मा के स्वरूप का वर्णन करते हुए डॉ. भारिल्ल नयचक्र पृष्ठ ३३२ पर लिखते हैं- भगवान आत्मा गुणीनय से गुणग्राही है अर्थात् उपदेश को ग्रहण करनेवाला है और अगुणीनय से गुणग्राही नहीं है मात्र साक्षी भाव से देखने-जाननेवाला है; कर्तृनय से अपने आत्मा

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