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गुरुचिंतन
पूज्य गुरुदेवश्री द्वारा नयप्रज्ञापन पृष्ठ ३२१ पर किया गया स्पष्टीकरण इस प्रकार है :
“यदि इसप्रकार का धर्म भगवान आत्मा में स्वयं का नहीं होता तो अन्य अनन्त परद्रव्य इकट्ठे होकर आत्मा में विकार उत्पन्न नहीं कर सकते थे। निगोद से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक जो उपाधिभावविकारभाव-उदयभाव-संसारभाव होते हैं, उन्हें आत्मा स्वयं ही धारण किये रहता है, क्योंकि अशुद्धनय से आत्मा का ऐसा ही स्वभाव है।"
___ ४. यहाँ रागादि की उत्पत्ति में आत्मा के पर्यायगत स्वभाव को कारण कहा है अर्थात् यह योग्यता ही स्वभाव नामक समवाय है।
५. क्षणिक पर्याय में अशुद्धता होने पर भी आत्मा का स्वभाव निरुपाधिक और विकार रहित है। उसकी यह योग्यता शुद्धनय का विषय
६. यहाँ विकार होने की योग्यता के सामने त्रिकाली सामान्य स्वभावरूप रहने की योग्यता को लिया है। निर्मल पर्यायों की योग्यता के बारे में यहाँ कोई चर्चा नहीं की गई है। इसप्रकार आत्मा एक साथ शुद्ध और अशुद्ध दोनों धर्मों को धारण करता है।
इसप्रकार यहाँ अनन्त धर्मात्मक आत्मा में विद्यमान ४७ धर्मों का कथन किया। शुद्ध चैतन्यमात्र आत्मा को दृष्टि में लेना ही इन सभी धर्मों को जानने का फल है।
प्रस्तुति : पं. अभयकुमार जैन, देवलाली