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गुरु चिंतन १४. टीकार्थ-लिंग का अर्थात् मेहनाकार का (पुरुषादि की इन्द्रिय के आकार का) ग्रहण जिसके नहीं है, सो अलिंगग्रहण है। इसप्रकार आत्मा लौकिक साधनमात्र नहीं है – ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है। सारांशआत्मा मेहनाकार को (पुरुष, स्त्री नपुंसक की जड़ इन्द्रियों के आकार को) ग्रहण नहीं करता है। आत्मा (सन्तानोत्पत्ति का) लौकिक साधनमात्र नहीं है। आत्मा तो वीतरागी पर्याय प्रगट करने में लोकोत्तर साधन है।
१५. टीकार्थ- लिंग के द्वारा अर्थात् अमेहनाकार के द्वारा जिसका ग्रहण अर्थात् लोक में व्यापकत्व नहीं है, सो अलिंगग्रहण है। इसप्रकार आत्मा पाखंडियों के प्रसिद्ध साधनरूप आकारवाला-लोकव्याप्तिवाला नहीं है - ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है। सारांश- प्रत्येक आत्मा अपने स्वक्षेत्ररूप असंख्य प्रदेशों में रहता है।
१६. टीकार्थ- जिसके लिंगों का अर्थात् स्त्री, पुरुष और नपुंसक वेदों का ग्रहण नहीं है, वह अलिंगग्रहण है। इसप्रकार आत्मा द्रव्य से तथा भाव से स्त्री, पुरुष तथा नपुंसक नहीं है - ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है। सारांश- द्रव्यवेद- नोकर्म जड़ शरीर की रचना है, वह अजीवतत्त्व है। भाववेद- पर शरीर को स्पर्श करने का, भोगने का भाव पापभाव है। द्रव्य तथा भाववेद का आत्मस्वभाव में अभाव है।
१७. टीकार्थ- लिंगों का अर्थात् धर्मचिन्हों का ग्रहण जिसके नहीं है, वह अलिंगग्रहण है। इसप्रकार आत्मा के बहिरंग यतिलिंगों का अभाव है - इस अर्थ की प्राप्ति होती है। सारांश- जब अंतर में निग्रंथ दशा प्रगट होती है, तब बाहर में शरीर की नग्न दिगम्बर दशा ही होती है तथा संयम-शौच के उपकरण मयूरपिच्छि और कमंडलु मात्र होते हैं, परन्तु उनका आत्मा में अभाव है।
१८. टीकार्थ-लिंग अर्थात् गुण ऐसा जो ग्रहण अर्थात् अर्थावबोध (पदार्थज्ञान) जिसके नहीं है, सो अलिंगग्रहण है। इस प्रकार आत्मा