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5. श्री प्रवचनसारजी-अलिंगग्रहण के २० बोल
१. टीकार्थ-ग्राहक (ज्ञायक) जिसके लिंगों के द्वारा अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण (जानना) नहीं होता, वह अलिंगग्रहण है। इसप्रकार आत्मा अतीन्द्रिय ज्ञानमय है - इस अर्थ की प्राप्ति होती है। सारांश- आत्मा इन्द्रियों के द्वारा नहीं जानता है। स्व-पर प्रकाशक ज्ञानस्वभाव स्वयं से है, इन्द्रियों से नहीं। आत्मा इन्द्रियों से जाने ऐसा ज्ञेय पदार्थ नहीं है।
२. टीकार्थ-ग्राह्य (ज्ञेय) जिसका लिंगों के द्वारा अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण (जानना) नहीं होता है - वह अलिंगग्रहण है। इसप्रकार आत्मा इन्द्रिय-प्रत्यक्ष का विषय नहीं है - इस अर्थ की प्राप्ति होती है। सारांशआत्मा इन्द्रियों के द्वारा जानने में नहीं आता। आत्मा इन्द्रियों से ज्ञात हो- ऐसा ज्ञेय पदार्थ नहीं है। आत्मा स्वज्ञान प्रत्यक्ष से ज्ञात हो- ऐसा ज्ञेय पदार्थ है।
३. टीकार्थ-जैसे धुयें से अग्नि का ग्रहण (ज्ञान) होता है, इसीप्रकार लिंग द्वारा अर्थात् इन्द्रियगम्य (इन्द्रियों से जानने योग्य) चिन्ह द्वारा जिसका ग्रहण नहीं होता है, वह अलिंगग्रहण है। इसप्रकार आत्मा इन्द्रियप्रत्यक्षपूर्वक अनुमान का विषय नहीं है- ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है। सारांश- आत्मा इन्द्रियों के अनुमान से ज्ञात हो ऐसा ज्ञेय नहीं है।
४. टीकार्थ- दूसरों के द्वारा मात्र लिंग द्वारा ही जिसका ग्रहण नहीं होता वह अलिंगग्रहण है। इसप्रकार आत्मा अनुमेयमात्र (केवल अनुमान से ही ज्ञात होने योग्य) नहीं है - ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है। सारांशअन्य द्वारा आत्मा केवल अनुमान से ज्ञात हो वह ऐसा प्रमेय पदार्थ नहीं है। यदि आत्मा केवल अनुमान का ही विषय हो तो वह कभी भी प्रत्यक्षज्ञान का विषय नहीं हो सकता।
५. टीकार्थ- जिसके लिंग से ही अर्थात् अनुमानज्ञान से ही पर का ग्रहण नहीं होता, वह अलिंगग्रहण है। इसप्रकार आत्मा अनुमातामात्र (केवल अनुमान करनेवाला ही) नहीं है - ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती