________________
44
गुरुचिंतन
""
अ. " ज्ञेयाकार ज्ञान में भी कलाकार ज्ञान है । " ब. “जो कुछ झलकता ज्ञान में वह ज्ञेय नहीं बस ज्ञान है।' उपर्युक्त दोनों पंक्तियों में ज्ञान- ज्ञेय अद्वैतनय का ही प्रयोग झलक रहा है।
३. आत्मा में ऐसी योग्यता हैं कि उसमें ज्ञेय प्रतिबिम्बित होते हुए भी वह ज्ञेयों से भिन्न रहता हैं - यह योग्यता ही ज्ञान - ज्ञेय द्वैतधर्म कही जाती है तथा इसे जाननेवाला ज्ञान, ज्ञान- ज्ञेय द्वैतनय कहा जाता है।
"प्रतिबिम्बित पूरी ज्ञेयावलि, पर चिन्मयता को आँच नहीं " इस पंक्ति में पूर्वार्ध में अशून्यनय और उत्तरार्ध में ज्ञान - ज्ञेय द्वैतनय का प्रयोग झलक रहा है।
ज्ञान- ज्ञेय सम्बन्धी छहों नयों के स्वरूप और उन्हें जानने से होने वाले लाभ के सम्बन्ध में डॉ. हुकमचन्दजी भारिल्ल द्वारा परमभाव प्रकाशक नयचक्र पृष्ठ ३१३ पर व्यक्त किये गये निम्नलिखित विचार दृष्टव्य हैं
66
संक्षेप में कहा जा सकता है कि यह भगवान आत्मा ज्ञेयों को जानता तो है, पर न तो ज्ञान ज्ञेयों में आता है और न ज्ञेय ज्ञान में ही आते हैं। दोनों अपने-अपने स्वभाव में सीमित रहने पर भी ज्ञान जानता है और ज्ञेय जानने में आते हैं। ज्ञाता भगवान आत्मा और ज्ञेय लोकालोकरूप सर्व पदार्थों का यही स्वभाव है।
ज्ञाता भगवान आत्मा के उक्त स्वभाव का प्रतिपादन करना ही उक्त छह नयों का प्रयोजन है।
ज्ञेयों को सहजभाव से जानना भगवान आत्मा का सहज स्वभाव है। अतः न तो हमें पर-पदार्थों को जानने की आकुलता ही करना चाहिए और न नहीं जानने का हठ ही करना चाहिए; पर्यायगत योग्यतानुसार जो ज्ञेय ज्ञान में सहजभाव से ज्ञात हो जावें, उन्हें वीतराग भाव से जान