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गुरु चिंतन (३९) जीव को शुद्धनय का पक्ष तो कभी आया नहीं और उसका उपदेश भी विरल है, अतः शुद्धनय को प्रधान करके उसे भूतार्थ कहा है तथा उसके आश्रय से सम्यग्दृष्टि होते हैं - ऐसा भी कहा है।
गाथा-१२ (४०) व्यवहार नय का उपदेश सर्वथा निषेध्य नहीं है, क्योंकि जो जीव समदर्शन-ज्ञान-चारित्र की अपूर्णता रूप अपरमभाव (सांधकदशा) वाले हैं, उन्हें जानने में आता हुआ व्यवहार प्रयोजनवान कहा है और जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की पूर्णता रूप परमभाव को देखनेवाले हैं, उन्हें शुद्धनय जाना हुआ प्रयोजनवान है।
(४१) जो व्यवहार को सर्वथा असत्यार्थ मानकर छोड़ता है और उसे शुद्धोपयोग की साक्षात् प्राप्ति तो हुई नहीं है; तब वह उल्टा अशुभोपयोग में आकर, भ्रष्ट होकर स्वेच्छाचारी प्रवृत्ति करेगा उससे नरकादि गति तथा परम्परा से निगोदादि को प्राप्त करेगा।
गाथा-१३ (४२) भूतार्थनय, निश्चयनय या शुद्धनय से नवतत्त्वों को जानना सम्यक्त्व है। वहाँ भूतार्थनय से जानने का अर्थ यह है बाह्यतीर्थ की प्रवृत्ति के निमित्तभूत अभूतार्थनय, व्यवहारनय या अशुद्धनय से जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष ये नवतत्त्वों का भेदरूप उपदेश दिया गया है; परन्तु भूतार्थ नय से उन नवतत्त्वों में छिपी हुई एकत्वरूप आत्मज्योति को प्राप्त कर, शुद्धनय से उसकी अनुभूति होती है, वही आत्मख्याति है।
(४३) व्यवहार नय आत्मा को अवस्थाओं द्वारा विविध प्रकार से दिखलाता है परन्तु शुद्धनय तो आत्मा को एक चैतन्य चमत्कार