________________
15
गुरु चिंतन के योग्य स्वसंवेदन ज्ञान अभी भी होता है। अतः द्रव्यश्रुत के समस्त विस्तार - भेदकथन का सार निजशुद्धात्मा को भावश्रुतज्ञान द्वारा स्वसंवेदन करना है, अत: व्यवहार परमार्थ का प्रतिपादक है - ऐसा निश्चय करना।
गाथा-११ ३६) व्यवहार नय परमार्थ का प्रतिपादक है तो फिर वह अनुसरण करने योग्य क्यों नहीं है ? इसका समाधान यह है कि व्यवहार नय सर्व ही अभूतार्थ है; क्योंकि वह अविद्यमान अर्थ को बतलाता है, जबकि निश्चय एक ही भूतार्थ है विद्यमान अर्थ को बतलाता है। अभूतार्थ का श्रद्धान परमार्थ न होने से अनुभव या सम्यग्दर्शन का कारण नहीं हैं, अत: व्यवहार नय अनुसरण करने योग्य नहीं है; परन्तु निश्चय अर्थात् भूतार्थ-सत्यार्थ-यथार्थ यह परमार्थ का प्रतिपादक और वस्तुस्वरूप का सम्यक् अवलोकन करने वाला होने से सम्यग्दर्शन का कारण है।
(३७) शुद्धनय का विषय अभेद या एकाकार रूप नित्य द्रव्य है, उसकी दृष्टि में भेद दिखाई नहीं देते; इसलिए इस दृष्टि में भेद अविद्यमान है अभूतार्थ हैं असत्यार्थ हैं। ऐसा भी नहीं है कि भेदरूप कोई वस्तु ही नहीं है, अपितु नाम, लक्षण तथा प्रयोजन अपेक्षा व्यवहार कथन में भेद कहे जाते हैं। अतः सर्वथा एकान्त भी ग्राह्य नहीं है।
(३८) विशेष यह है कि जिनवाणी स्याद्वाद रूप है, वह प्रयोजनवश मुख्य-गौण करके कथन करती है। प्राणियों को भेदरूप व्यवहार का पक्ष तो अनादि से ही है, उसका उपदेश बहुधा सभी परस्पर में करते हैं, जिनवाणी में भी भेदरूप व्यवहार के कथन बहुत हैं, परन्तु व्यवहार का फल संसार ही है।