Book Title: Guru Chintan
Author(s): Mumukshuz of North America
Publisher: Mumukshuz of North America

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ गुरु चिंतन 13 (२६) शब्दब्रह्म या अर्हन्त के परमागम के अभ्यास से, निर्दोष युक्ति के आलंबन से, परम्परागत अन्तर्निमग्न गुरुओं के प्रसाद (निमित्त) से दिये गये शुद्धात्म तत्त्व के उपदेश से और निरन्तर झरते हुए स्वाद में आते हुए सुंदर निजानंद के अनुभव से मेरे निजवैभव का जन्म हुआ है। गाथा-६ (२७) शिष्य का प्रश्न 'वह शुद्धात्मा कौन हैं ?' उसके उत्तर में आचार्य कहते हैं कि वह शुद्धात्मा प्रमत्त नहीं है, अप्रमत्त नहीं है, वह तो एक ज्ञायकभाव है जो नित्य शुद्ध है और अनुभवगोचर है। (२८) टीकाकार लिखते हैं कि वह शुद्धात्मा स्वयं सिद्ध होने से अनादि-अनन्त है, नित्य स्पष्ट प्रकाशमान ज्यातिरूप एक ज्ञायक भाव है। (२९) वह ज्ञायकभाव, संसार दशा में दूध तथा पानी की तरह कर्म पुद्गलों के साथ एकरूप होने पर भी, द्रव्यस्वभाव की अपेक्षा पुण्य-पाप को उत्पन्न करने वाले शुभ-अशुभ भावरूप नहीं होता है। ज्ञायक तो ज्ञायक ही रहता है। इसलिये ज्ञायक प्रमत्तअप्रमत्तरूप नहीं होने से शुद्ध ही रहता है। (३०) ज्ञायक नाम उसे ज्ञेयों को जानने के कारण दिया गया है, यद्यपि ज्ञेयों को ज्ञायक जानता है तथापि उसमें ज्ञेयकृत अशुद्धि नहीं होती है। अशुद्धता अशुद्धनय का तथा शुद्धता शुद्धनय का विषय है। शुद्धनय अपेक्षा अशुद्धता पर्यायदृष्टि है, व्यवहार है। __ (३१) यद्यपि शुद्धता व अशुद्धता दोनों वस्तु के धर्म हैं, तथापि अशुद्धता अशुद्धनय का विषय है और अशुद्धनय का विषय संसार है जो दुःखरूप है; अतः दुख मिटाने के लिए शुद्धनय का उपदेश प्रधान है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80