Book Title: Guru Chintan
Author(s): Mumukshuz of North America
Publisher: Mumukshuz of North America

View full book text
Previous | Next

Page 13
________________ 11 गुरु चिंतन की सामर्थ्य वाला होने से समस्त रूपों को प्रकाशित करने वाली एकता को प्राप्त है। इस विशेषण से ज्ञान अपने को ही जानता है ऐसा मानने वालों का निराकरण हुआ है। इससे सिद्ध हुआ कि ज्ञान कथंचित् एकाकार (अमेचक) है तथा कथंचित् अनेकाकार (मेचक) है। (१७) वह जीव अन्य द्रव्यों अर्थात् धर्म-अधर्म-आकाशकाल-पुद्गल से भिन्न कहा है, इससे जगत में एक ब्रह्मवस्तु को ही मानने वाले ब्रह्मवादियों का भी खण्डन हुआ है। (१८) जीवद्रव्य का अन्य का अन्य द्रव्यों के साथ एक क्षेत्रावगाह संबंध होने पर भी वह जीव पदार्थ अपने टंकोत्कीर्ण चैतन्य स्वभावरूप ही रहता है। परद्रव्यरूप नहीं होता है। (१९) जब यह जीव सर्व पदार्थों के प्रकाशक केवलज्ञान को उत्पन्न करने वाली भेदज्ञान ज्योति का उदय होने पर सर्व परद्रव्य से छूट कर अपने दर्शन-ज्ञान स्वभाव में लीन होता है, तब वह 'स्वसमय' होता है। __(२०) जब वह अनादि मोहोदयानुसार प्रवृत्ति करता है तब दर्शन-ज्ञान-चारित्र से छूट कर मोहरागादिरूप परिणमन करता हुआ प्रदेशों में स्थित होने से ‘परसमय' रहता है। इसप्रकार जीव पदार्थ के स्वसमय परसमय रूप द्विविधता प्रकट होती है। गाथा-३ (२१) यहाँ 'समय' शब्द का अर्थ सभी पदार्थ हैं, क्योंकि 'समय' शब्द का व्युत्पत्ति अर्थ 'समयते' अर्थात् एकत्वरूप से गुण पर्यायों को प्राप्त होकर परिणमन करे, वह समय है। सभी द्रव्य अपने

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80