________________
2. श्री समयसारजी गाथा १ से १६ का संक्षिप्त सारांश गाथा - १
(१) इस मंगलाचरणरूप गाथा में सूत्रकार कुन्दकुन्दाचार्य देव ने ध्रुव, अचल तथा अनुपम दशा को प्राप्त समस्त सिद्ध भगवन्तों को नमस्कार किया है तथा 'समयप्राभृत' को कहने की प्रतिज्ञा की है।
(२) समयसार के आद्य टीकाकार अमृतचन्द्राचार्य ने सिद्धों के तीनों विशेषणों की व्याख्या इसप्रकार की है।
(अ) पंचमगति या सिद्धदशा ध्रुव है, क्योंकि वह ध्रुवस्वभाव के अवलम्बन से उत्पन्न होने से ध्रुवपने को प्राप्त हुई है।
(ब) राग-द्वेष - मोह रूप परभावों के निमित्त से चतुर्गति परिभ्रमण होता था और सचलपना रहता था। अब सिद्धदशा परभावों की विश्रांति (अभाव) होने से चतुर्गति परिभ्रमण मिट जाने के कारण अचलपने को प्राप्त हुई है ।
(क) धर्म - अर्थ और काम ये त्रिवर्ग हैं, मोक्ष या सिद्धदशा इन तीनों से भिन्न होने के कारण अपवर्ग संज्ञा वाली है तथा जगत में समस्त उपमा योग्य ( उपमान) पदार्थों से भिन्न होने के कारण अनुपमपने को प्राप्त है।
(३) वे सिद्ध भगवान साध्य निजात्मा के कारण है अर्थात् संसारी भव्यजीव सिद्धों के समान अपने स्वरूप को ध्याकर सिद्ध हो जाते हैं।
(४) ऐसे सिद्ध भगवन्तों को अपने आत्मा में तथा पर के आत्मा में स्थापित करके स्व तथा पर के अनादि-मोह का नाश करने के लिए समय या आत्मा को प्रकाशित करने वाले अर्हन्त