Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 3
________________ विद्यदेव ने तो आपको चार अनुयोग के पारगामी और भगवान कहा है--'भगवान्नेमिचन्द्रसिद्ध न्तदेवश्चतुरनुयोगचतुरुदधिपारगः, त्रिलोकसार टीका १० । श्रीमद् राजचन्द्र ने भी मभक्षयों से विशेष रूप से गोम्मटसार के पठन - पाठन का अनुरोध किया है, जो इस ग्रन्थ की उपादेयता तथा महत्ता को स्थापित करता है। गोम्मटसार की रचना प्रापन पन्द्रगिरि पर चानुपासचद्वार विमपित जिनालय में स्थापित इन्द्रनीलमणि की एक हस्तप्रमाण श्री नेमिनाथ भगवान की प्रतिमा के सम्मुख बैठ कर की थी। षट्खण्डागम के अतिरिक्त काषाय पाहुड (चुणि सूत्रों सहित), तिलोयपण्णत्ती आदि ग्रन्थों के भी प्राप पारगामी विद्वान थे। इन्हीं सिद्धान्त ग्रन्थों के सार - रूप में आपने गोम्मटसार के अतिरिक्त लब्धिसार, क्षपणासार व त्रिलोकसार की रचना की थी। ग्रन्थकर्ता का समय--गोम्मटसार ग्रन्थ को कर्णाटकीय प्रादिवृत्ति के कर्ता केशववर्णी प्रादि अपने प्रारम्भिक कथन में लिखते हैं कि श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने अनेक उपाधि विभूषित चामुण्डराय के लिए प्रथम सिद्धान्त ग्रन्थ (षट्खण्डागम) के आधार पर गोम्मटसारग्रन्थ की रचना को । स्वयं प्राचार्य देव ने ही गो.क. की अन्तिम प्रशस्ति में राजा गोम्मट अर्थात् चामुण्डगय का जयकार किया है। चामृण्डराय गंगनरेश श्री राचमल्ल के प्रधानमन्त्री एवं मेनापति थे । चामुण्डराय ने अपना चामुण्डराय पुराण मक सं. ६०० तदनुसार वि. सं. १०३१ में पूर्ण किया था। सचमल्ल का राज्यकाल वि. सं. १०४१ तक रहा है, ऐसा ज्ञात होता है। बाहुबली चरित में गोम्मदेश की प्रतिष्ठा का समय वि. सं. १०३७-३८ बतलाया है। गोम्मटेश की प्रतिष्ठा में स्वयं नेमिचन्द्राचार्य उपस्थित थे। इसलिए नेमिचन्द्राचार्य का काल विक्रम की ११ वीं शताब्दी सिद्ध होता है। अन्यकर्ता के गुरु-त्रिलोकसार की अन्तिम गाथा में श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने अपने आपको अभयनन्दी गुरु वा शिष्य कहा है। इसके अतिरिक्त प्राचार्य वीरनन्दी, इन्द्रनन्दी तथा कनकनन्दी का भी अत्यन्त श्रद्धा के साथ उल्लेख किया है। गोम्मटसार कर्मकाण्ड को निम्नलिखित गाधा के प्रकाश में ग्रन्थकर्ता के दीक्षागुरु का आभास मिलता है। गाथा इस प्रकार है-- जस्स य पायपसाएणणंतसंसारजलहिमुत्तिणो । वीरिवर्णविवच्छो, णमामि तं अभयणंदिगुरु ॥४३६॥ वीरनन्दी पौर इन्द्रनन्दी का वत्स जिनके चरणप्रसाद से अनन्तसंसाररूपी सागर मे उत्तीर्ण हो गया, उन अभयनन्दी गुरु को मैं (नेमिचन्द्र ) नमस्कार करता हूँ। अनन्त संसाररूपी सागर से उत्तीर्ण होने का अभिप्राय दीक्षा से ही है । अतः ऐसा लगता है कि उनके दीक्षागुरु प्रभयनन्दी हैं। ग्रन्थ परिमारण - प्रस्तुत ग्रन्थ जीवकाण्ड में कुल ७३४ प्राकृत गाथाएँ हैं। ये सभी गाथाएं प्राचार्य नेमिचन्द्र द्वारा रचित ही हों, ऐसा नहीं है। परन्तु ग्रन्थकार ने अपने से पूर्वकालिक धवलो जयधवला आदि अन्य ग्रन्थों से भी प्रसंगानुसार गाथाएं लेकर उन्हें अपने ग्रन्थ का अंग बनाया है।' १. इदि मिचंदमृणिवा अप्पसुदेण मयणदिवच्छेग । रइयो तिलोयसारो खमंतु बहुगुणाइरिया ।।१०१-11 २. बटवाडा० परिशी, पृष्ट ३०७ (ज्ञानपीठ) ।

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