Book Title: Deshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Author(s): R C Gupta
Publisher: Deshbhushanji Maharaj Trust

View full book text
Previous | Next

Page 13
________________ आशीर्वचन * भारतवर्ष के जैन समाज ने गुरुभक्ति की भावनावश 'आस्था और चिन्तन' नामक जिस अभिनन्दन ग्रन्थ की रचना की है वह दिगम्बर जैन साधु पर लादा गया एक भारी बोझ है। हमारे जैसे गुणरहित एवं विद्वत्तारहित साधारण जैन मुनि को उठा कर पहाड़ पर विराजमान करने की जो चेष्टा हुई है वहां से उसके नीचे गिरने का भय भी निरन्तर बना हुआ है। भारत के जैन एवं जनेतर विद्वानों एवं समाजसेवियों ने जो भी स्तुतियां एवं प्रशंसा वचन भेजे हैं, हम उनके योग्य नहीं । श्रीमत्परम- गम्भीर स्याद्वादामोघ लाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिन शासनम् ॥ दिगम्बर साधु आत्मा में लीन रहता है और स्वमार्गोन्मुखी कर्तव्य पथ पर अग्रसर रहता है । जैसे नदी का जल बहता रहता है, उसके जल से पिपासु अपनी प्यास बुझाते हैं, स्नानार्थी स्नान कर लेते हैं तथा कुछ लोग उसके जल से अन्य प्रयोग भी ले लेते हैं, परन्तु नदी का जल अच्छे और बुरे का भेद किए बिना निरन्तर बहता रहता है और अपने कर्तव्य पथ का पालन करता है उसी प्रकार दिगम्बर साधु भी किसी की प्रशंसा या सम्मान से न तो आनन्दित होता है और न ही निन्दावचनों से दुःखी होता है। और दुःख में समान भाव बने रहना उसका वास्तविक स्वभाव है। हानि-लाभ, सुख-दुःख, यश-अपयश सभी द्वन्द्वों से वह परे है। सुख मुझे मालूम हुआ है कि पिछले पांच-छह वर्षों से इस बृहत्काय ग्रन्थ का निर्माण चला आ रहा है। देश-विदेश के अनेक विद्वानों ने जैन विद्याओं के विविध पक्षों में चिन्तन के नवीन आयाम जोड़े हैं। जैन परम्परा और उसके तत्त्व चिन्तन को प्रोत्साहित करना आज के युग की बहुत बड़ी आवश्यकता है। जैन तत्त्व चिन्तन के इस आयाम के प्रति अपना योग देने वाले सभी लेखकों एवं देश-विदेश के विद्वानों को मेरा शुभाशीष है। मेरी दृष्टि में यह अभिनन्दन किसी एक जैन साधु का अभिनन्दन न होकर समग्र जैन परम्परा और उसके इतिहास का अभिनन्दन है । अहिसा के प्रति समर्पित समग्र मानवता का अभिनन्दन है । अभिनन्दन ग्रन्थ समिति ने अनथक और निष्काम रूप से कार्य करके अपना जो कर्तव्य सम्पादित किया है उससे न तो मैं आनन्दित हूं और न ही इस अवसर पर कोई प्रशंसा वचन ही कहना चाहता हूं। इतना अवश्य कहूंगा कि मैंने आठ वर्ष दिल्ली में जो चातुर्मास किए हैं और टूटे-फूटे शब्दों से जिस सन्मार्ग की ओर संकेत किया है वह ही आत्मकल्याण का मार्ग है। शब्दों को हृदय में रखकर आप यदि आत्मकल्याण के प्रति श्रद्धा रखेंगे तो वह ही मेरा वास्तविक अभिनन्दन है | श्रावक का कल्याण हो जाए तो हमारा भी कल्याण हो जाता है । अभिनन्दन ग्रन्थ को मूर्त रूप देने में और उसकी रूपरेखा निर्धारित करने में अभिनन्दन ग्रन्थ समिति के महामंत्री सुमतप्रसाद जैन व उनके सहयोगियों ने जो विशेष परिश्रम किया है, उन्हें मेरा आशीर्वाद है। आत्मकल्याण की भावना का प्रचार व प्रसार करने वाले सभी जैन एवं जैनेतर भाई-बहनों को हम हार्दिक शुभाशीर्वाद देते हैं और उनकी दीर्घायु की कामना करते हैं। -आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज आस्था और चिन्तन शांतिगिरि, कोथली (कर्नाटक) अहिंसा दिवस बृहस्पतिवार दिनांक २-१०-१९०६ * प्रतिनिधिमंडल को शांतिगिरि में दिया गया आचार्य श्री का अवसरानुकूल संदेश । Jain Education International For Private & Personal Use Only १ www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 ... 1766