Book Title: Dashvaikalaik Sutra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 13
________________ से वान्त-विष को फिर चूस लेना ठीक न समझ कर, अग्नि में प्रवेश करना उत्तम समझते __इस दृष्टान्त से साधुओं को सोचना चाहिये कि-विवेक-विकल तिर्यंच विशेष सर्प भी जब अभिमान मात्र से अग्नि में जल मरना पसन्द करते हैं, परन्तु वमन किये हुए विष को पीना ठीक नहीं समझते। इसी तरह जिनप्रवचन के रहस्यों को जानने वाले साधुओं से जिनका आखिरी परिणाम ठीक नहीं ऐसे अनन्त बार भोग कर वमन किये हुए भोग किस प्रकार सेवन किये जायँ ? रहनेमि के प्रति राजिमति का उपदेश बाईंसवें तीर्थंकर भगवान् नेमनाथस्वामी ने राज्य आदि समस्त परिभोगों का त्याग करके दीक्षा ले ली। तब रहनेमि ने राजिमति की मधुरसंलापन, योग्यवस्तु प्रदान आदि से परिचर्या करना शुरु,की। इस गर्ज से कि यदि मैं राजिमति को हर तरह से प्रसन्न रक्खूगा तो इससे मेरी भोगाभिलाषा पूर्ण होगी? राजिमति विषय विरक्त थी, उसके हृदय भवन में निरन्तर वैराग्य भावना निवास करती थी। राजिमति को रहनेमि के दुष्ट अध्यवसाय का पता लग गया. उसने रहनेमि को समझाने की इच्छा से एक दिन शिखरिणी का पान किया। उसी अवसर पर रहनेमि राजिमति के साथ विषयालाप करने के लिये आया. राजिमति ने तत्काल मींडल के प्रयोग से वमन करके रहनेमि को कहा कि-इस वान्त शिखरिणी को तुम पी जाओ, रहनेमि ने कहा-भो सुलोचने ! भला यह वान्त वस्तु कैसे पी जाय? राजिमति ने कहा कि-यदि तुम वान्त वस्तु का पीना ठीक नहीं समझते तो भला भगवान नेमिनाथस्वामी व्दारा वमन किये हुए मेरे शरीर के उपभोग की वांछा क्यों करते हो ? इस प्रकार की दुष्ट अभिलाषा करते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आती? अतएव धिरत्थु तेऽजसोकामी, जो तं जीवियकारणा। वंतं इच्छासि आवेडं, सेयं ते मरणं भवे॥७॥ शब्दार्थ-अजसोकामी अपयश की इच्छा रखने वाले हे रहनेमिन् ! ते तेरे पुरुषपन को धिरत्थु धिक्कार हो जो जो तं तुं जीवियकारणा पीने की इच्छासि इच्छा करता है, इससे ते तेरे को मरणं मरना सेयं अच्छा भवे होगा। -हे रहनेमिन् ! तूं वान्तभोगों को भोगने की वांछा रखता है इससे तेरे को धिक्कार है. अतएव तेरे को मर जाना अच्छा है, लेकिन अपयश से तुझे जीना अच्छा नहीं है। कहा भी है कि___ वरं हि मृत्युः सुविशुद्धकर्मणा, न चापि शीलस्खलितस्य जीवितम्' उत्तम कर्म करके मर जाना अच्छा है, परन्तु शील रहित पुरुष का जीना ठीक नहीं है। क्योंकि-शीलरहित जीवन से पग-पग पर दुःख और निन्दा का पात्र बनना पड़ता है। श्री दशवैकालिक सूत्रम् /१०

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