Book Title: Dashvaikalaik Sutra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 30
________________ छट्ठे व्रत की प्रतिज्ञा अहावरे छट्ठे भंते! वए राइभोयणाओ वेरमंण सव्वं भंते! राइभोयणं पच्चक्खामि । से असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा नेव सयं राई भुंजेज्जा नेवऽन्नेहिं राई भुंजावेज्जा राई भुंजंते वि अन्ने न समणुजाणेज्जा । जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करंतं पि अन्नं न समणुजाणामि तस्स भंते! पडिक्कमामि निदांमि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामी छट्ठे भंते! वए ओमि सव्वाओ राइभोयणाओ वेरमणं । शब्दार्थ- अह इसके बाद ! भंते! हे गुरू ! अवरे आगे के छठ्ठे छठवें वए व्रत में राईभोयणाओ रात्री - भोजन से वेरमणं अलग होना जिनेश्वरों ने फरमाया है, अतएव भंते ! हे प्रभो ! सव्वं समस्त राइभोयणं रात्रि भोजन का पच्चक्खामि मैं प्रत्याख्यान करता हूं से वह असणवा' पकाया हुआ अन्न, आदि पाणं वा आचारांगसूत्रोक्त उत्सेदिम आदि जल खाइमंवा खजूर आदि साइमं वा इलायची, लोंग, चूर्ण आदि सयं खुद राई रात्रि में भुंजिञ्जा खावे नेव नहीं अन्नेहिं दूसरों को राई रात्रि में भुंजाविज्जा खवावे नेव नहीं राई रात्रि में भुंजंते खाते हुए अन्ने वि दूसरों को भी न समणुजाणेञ्जा अच्छा समझे नहीं, ऐसा जिनेश्वरों ने कहा । इसलिये जावज्जीवाए जीवन पर्यन्त तिविहं कृत कारित अनुमोदित रूप त्रिविध रात्रि भोजन को मणेणं मन वायाए वचन काएणं काया रूप तिविहेणं तीन योग से न करेमि नहीं करूं न कारवेमि नहीं कराऊं करतं करते हुए अन्नं पि दूसरों को भी न समणुजाणामि अच्छा नहीं समझं भंते! हे भगवान् ! तस्स भूतकाल में किये गये रात्रि - भोजन की पडिक्कमामि प्रतिक्रमण रुप आलोयणा करूं निंदामि आत्म- साक्षी से निंदा करूं गरिहामि गुरु- साक्षी से गर्हा करूं अप्पाणं रात्रि भोजन करनेवाली आत्मा का वोसिरामि त्याग करूं भंते ! हे प्रभो ! छट्ठे छठवें वए व्रत में सव्वाओ समस्त राइभोयणाओ रात्रि भोजन से वेरमणं अलग होने को उवट्ठिओमि उपस्थित हुआ हूं इच्चेयाइं पंचमहव्वयाई राइभोयण वेरमण छठ्ठाइं अत्तहियट्टयाए उवसंपज्जित्ताणं विहरामि । • शब्दार्थ — इच्चेयाई इत्यादि ऊपर कहे हुए पंचमहव्वयाई पांच महाव्रतों राइभोयणवेरमणछट्ठाई और छठवें रात्रि भोजन विरमण व्रत को अत्तहियट्ठवाए आत्महित के लिये उवसंपज्जित्ताणं अंगीकार करके विहरामि संयमधर्म में विचरं । — श्रमण भगवान श्रीमहावीरस्वामी ने सभा के बीच में केवलज्ञान से समस्त वस्तु तत्त्व को देख कर स्पष्ट रूप से कहा है कि साधु रात्रिभोजन सहित जीव हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन, परिग्रह; इन पांच आश्रवों को दुर्गतिदायक जानकर स्वयं आचरण न १ वा शब्द से अशन, पान, खादिम, स्वादिम के अवांतर तज्जातीय भेदों को भी ग्रहण करना चाहिये । श्री दशवैकालिक सूत्रम् / २७

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