Book Title: Dashvaikalaik Sutra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 67
________________ गृहस्थ वंदना न करे तो कुपित न बनें एवं राजा, राज पुरूष आदि वंदना करें तो गर्व धारण न करें। इस प्रकार जिनाज्ञा पालक साधु निरतिचार चारित्र का पालन कर सकता है। "स्वादेच्छु मुनि" सिआ एगइओ लद्धं, लोभेण - विणिग्हइ। मामेयं दाइ संतं दवण सयमायए॥३१॥ अत्तट्ठा गुरूओ लुद्धो, बहु पावं पकुव्वइ। दुत्तोसओ अ सो होइ, निव्वाणं च न गच्छड़॥३२॥ सिआ एगइओ लळू, विविह पाण भोअणं। भगं भद्दगं भुच्चा, विवन्नं विरसमाहरे॥३३॥ जाणंतु ता इमे समणा,आययट्ठी अयं मुणी। संतुट्ठो सेवए पंतं, लूहवित्ती सुतोसओ॥३४॥ पूअणट्ठा जसोकामी, माणसम्माण काम ए। बहुं पसवई पावं, मायासलं च कुव्वइ॥३५॥ सरस आहार में लुब्ध साधु पापार्जन कैसे करता है उसका स्वरूप बताते हैं, कदाच कोई एक साधु सरस आहार को लाकर लोभासक्त बन, नीरस आहार से उसे छिपा दे, क्योंकि सरस आहार बताऊंगा तो वे गुरू आदि ग्रहण कर लेंगे? स्वयं के भौतिक स्वार्थ को मुख्य मानने वाला रसलुब्ध साधु विशेष पापार्जन करता है इस भव में वह जैसे- तैसे आहार से संतुष्ट नहीं होता और इसी कारण से वह मोक्ष निर्वाण प्राप्त नहीं करता। कदाचित कोई साधु गोचरी में प्राप्त सरस आहार को मार्ग में ही खा कर, निरस आहार स्वस्थान पर लावे ऐसा मानकर कि दूसरे साधु ऐसा समझेंगे कि यह साधु आत्मार्थी, संतोषी, अंतप्रांत भोजी,रूक्ष वृत्ति युक्त और सुखपूर्वक संतुष्ट हो सके ऐसा है। ऐसा साधु पूजार्थी, यशार्थी, मान सन्मार्थी, मायाशल्य का सेवन करने से विशेष पापार्जन करता है॥३१ से ३५॥ "अभक्ष्य सेवी साधु" सुरं वा मेरगं वा वि,अन्नं वा मजगं रसं। ससक्खं न पिबे भिक्खू जसं सारक्खमप्पणो॥३६॥ पियए एगओ तेणो, न मे कोई विआणइ। तस्स पस्सह दोसाई, निअर्डिं च सुणेह मे॥३७॥ वढई सुंडिआ तस्स, मायामोसं च भिक्खुणो। अयसो अ अनिव्वाणं, सययं च असाहुआ॥३८॥ निच्चुबिगो जहा तेणो, अत्तकम्मेहिं दुम्मई। तारिसी मरणंतेवि, न आराहेइ संवरं ॥३९॥ आयरिए नाराहेइ, समणे आवि तारिसे। गिहत्थावि ण गरिहंति, जेण जाणंति तारिसं॥४०॥ एवं तु अगुणप्पेही, गुणाणं च विवजए। तारिसो मरणंतेऽवि, ण आराहेइ संवरं॥४१॥ श्री दशवैकालिक सूत्रम् / ६४ 01111111

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