Book Title: Dashvaikalaik Sutra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 80
________________ पच्छाकम्मं पुरेकम्म, सियातत्थ न कप्पड़। एयमटुं न भुंजंति, निग्गंथा गिहिभायणे॥५३॥ कांसे के प्याले, कांसे के पात्र एवं मिट्टी के कुंड मोद आदि गृहस्थ के बर्तन में अशन पानी आदि वापरने से श्रमण आचार से परिभ्रष्ट होता है। सुत्रकार श्री ने कारण दर्शाते हुए कहा है कि- साधु के निमित्त से सचित्त पानी से बर्तन धोने का आरंभ एवं वापरने के बाद पात्र धोकर पानी फेंक देने से पानी आदि अनेक जीवों का घात होता है ज्ञानियों ने उसमें असंयम देखा है। गृहस्थ के बर्तनों में भोजन करने से पूर्व कर्म एवं पश्चात कर्म की संभावना है ऐसे दोष के कारण निग्रंथ ऋषि, मुनि गृहस्थ के पात्र में आहार नहीं करते। यह चतुर्दशम संयम स्थान है।५१ से ५३। त्रेपनवी गाथा के भावार्थ को देखते हुए गृहस्थ के बर्तन बाह्य उपयोग में लेते समय भी पूर्व कर्म एवं पश्चात् कर्म की संभावना का दोष है। अत: गृहस्थ के बर्तन, वस्त्रादि के उपयोग में विवेक का होना अति आवश्यक है नहीं तो अशुभ कर्म का विशेष बंध होता है। पंचदशम स्थान पर्यक वर्जन" आसंदीपलिअंकेसु, मंचमासालएसु वा। अणायरिअमज्जाणं, आसइत्तु सइत्तुवा॥५४॥ नासंदी पलिअंकेसु, न निसिज्जा न पीढए। निग्गंथाऽपडिलेहाए, बुद्धवुत्तमहिढगा॥५५॥ गंभीर विजया एए, पाणा दुप्पडिलेहगा। आसंदी पलिअंको अ, एअमटुं विवज्जिआ॥५६॥ मंचिका, पलंग, मंच, आरामकुर्सी आदि आसन पर बैठना और सोना श्रमणों के लिए अनाचरित है। क्योंकि उसमें छिद्र होने से जीव हिंसा होना संभव है। जिनाज्ञाअनुसार आचरण कर्ता मुनि आचार्यादि राजदरबार आदि स्थानों में जाना पड़े, बैठना पड़े तो अपवाद मार्ग से आसन, पलंग कुर्सी, बाजोट आदि को पूंजकर पडिलेहण कर बैठे, बिना पडिलेहण उसका उपयोग न करें। ___ मंचिका, पलंग, आरामकुर्सी आदि गम्भीर छिद्र वाले, अप्रकाश आश्रययुक्त होने. से, उनमें रहे हुए सुक्ष्मजीव, दृष्टि गोचर न होने से, उस पर बैठने से, जीव विराधना होती है अत: ऐसे आसनों का त्याग करना। सारांश है। दुष्प्रति लेखन वाले आसन आदि का उपयोग न करना यह पंद्रहवाँ संयम स्थान है॥५४ से ५६॥ श्री दशवैकालिक सूत्रम् / ७७

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