Book Title: Dashvaikalaik Sutra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 133
________________ बहुलकर्मी जन साधारण की विषय भोगों की ओर प्रवृत्ति सुखकारी है अर्थात् अनुकुल प्रवृत्ति सुखकारी है पर नदी के प्रवाह में सामने तैरना अत्यंत कठिन है वैसे विषयासक्त लोगों को इंद्रिय जयादि रूप या दीक्षा पालन रूप आश्रम प्रतिश्रोत समान कठिन है। विषय में प्रवृत्ति करने रूप अनुश्रोत में चलने से संसार की वृद्धि होती है उसका त्याग कर प्रतिश्रोत में प्रवृत्ति करने से संसार से पार पाया जाता है ॥ ३ ॥ तम्हा आयार- परक्कमेणं, संवर- समाहि-बहुलेणं । गुणाअ नियमाअ, हुंति साहूण दट्ठवा ॥ ४ ॥ चरिआ इसी कारण से ज्ञानाचारादि रूप आचार में प्रयत्न करनेवाले और इंद्रियादि विषयों में संवर करने वाले सभी प्रकार से आकुलता रहित मुनि भगवंतों को एक स्थान पर निरंतर न रहने रुप चर्या, मूल गुण, उत्तर गुण, रूप गुण और पिंडविशुद्धि आदि नियमों का पालन करने हेतु उन पर दृष्टिपात करना चाहिये। उन्हें समझना चाहिये । ४ । पइरिक्कया इसिणं अ। अनिएअ- वासो समुआण- चरिआ, अप्पोवही कलह विवज्जाणअ, पसत्था ॥ ५ ॥ अनियतवास ( एक स्थान पर मर्यादा उपरांत अधिक न रहना), अनेक स्थानों से याचना पूर्वक भिक्षाग्रहण करना, अज्ञात कुलों से भिक्षा लेना, निर्जन- एकान्त स्थल में रहना, निर्दोष उपकरण लेना, अल्पोपधि रखना, क्लेश का त्याग करना । इस प्रकार मुनियों की विहार चर्या प्रशस्त (प्रशंसा योग्य ) है। वह स्थिरतापूर्वक आज्ञा पालन द्वारा भावचारित्र का साधन होने से पवित्र है । " आहार शुद्धि " अन्नाय - उंछं विहार- चरिआ आइन्न- ओमाण- विवज्जणा अ, ओसन्न-दिट्ठाहड- भत्तपाणे । संसट्टकप्पेण चारिज्ज भिक्खू, तज्जाय-संसट्ट जई जईज्जा ॥ ६ ॥ मुनि राजकुल में (आकीर्ण) एवं जिमनवार में (अवमान) गोचरी हेतु न जावे। जहां जाने से स्वपक्ष से या पर पक्ष अपमान होता हो वहां भी न जावे । प्रायः दृष्टिगत स्थान से लाया हुआ आहारले। अचित्त आहारादि से खरंटित भाजन, कडछी, हाथ आदि से आहार ले वह भी स्वजाति वाले आहार से खरंटित भाजन, कड़छी हाथ आदि से आहार लेने का यत्न करें | ६ | अमज्ज- मंसासि अमच्छरीआ, अभिक्खणं निव्विगहूं गया अ। अभिक्खणं काउस्सग्गकारी, सज्झाय जोगे पयओ हविज्जा ॥ ७ ॥ मुनि मदिरा, मांस का भक्षण न करें, मात्सर्यतारहित बने, बार-बार दुध आदि विगईयों का त्याग करें, बार-बार सौ कदम के ऊपर जाकर आने के बाद काउस्सग्ग करे, (इरियावही प्रतिक्रमण करे ) और वाचना आदि स्वाध्याय में, वैयावच्च में और मुनियों को आयंबिलादि तपधर्म में अतिशय विशेष प्रयत्न करना चाहिये । " ममत्व त्याग" न पनि विज्जा सयणासणाई, सिज्जं निसिज्जं तह भत्तपाणं । गामे कुले वा नगरे व देसे, ममत्तभावं न कहिं पि कुज्जा ॥ ८ ॥ मास कल्पादि पूर्ण होने के बाद विहार करते समय श्रावकों से प्रतिज्ञा न करावें की शयन, आसन, शय्या ( वसति) निषद्या, सज्झाय करने की भूमि और आहार, पानी हम जब दूसरी बार आऐं, श्री दशवैकालिक सूत्रम् / १३०

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