Book Title: Dashvaikalaik Sutra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 81
________________ " सोलहवाँ स्थान गृहान्तर निषद्या वर्जन " गोअरग्ग पविट्ठस्स, निसिज्जा जस्स इमेरिस मणायारं, आवज्जइ विवत्ती बंभचेरस्स, पाणाणं च वणीमगपंडिग्घाओ, पडिको हो अगुत्ती बंभचेरस्स, इत्थीओ वा कुसील वड्डणं ठाणं, दूरओ तिण्हमन्नयरागस्स, निसिज्जा जराए अभिभूअस्स, वाहिअस्स वि कप्पड़ । अबोहिअं ॥ ५७ ॥ वहे वहो । अगारिणं ॥ ५८ ॥ संकणं । - परिवज्जए ॥ ५९ ॥ जस्स कप्पड़ । तवसिणो ॥ ६० ॥ गोचरी गया हुआ श्रमण गृहस्थ के घर बैठता है तो आगे कहे जाने वाले मिथ्यावोत्पादक अनाचार की प्राप्ति होती है । ५७ । ब्रह्मचर्य का नाश, परिचय की वृद्धि से आधाकर्मादि आहार से भक्ति के प्रसंग में प्राणीवध, भिक्षुकों को अंतराय, गृहस्थ को कभी क्रोध उत्पन्न हो जाय, ब्रह्मचर्य व्रत का भंग हो, गृहस्वामी को अपनी स्त्री पर शंका उत्पन्न हो, इस कारण से कुशीलवर्द्धक स्थानों का मुनि को दूर से त्याग करना चाहिये । ५८,५९ । सप्तदशम स्थान स्नान वर्जन" अपवाद मार्ग दर्शाते हुए सुत्रकार श्री ने कहा है कि निम्न तीन प्रकार के श्रमणों को कारण से बैठना कल्पता है। (१) जराग्रस्त अति वृद्ध, (२) व्याधिग्रस्त रोगी, (३) तपस्वी उत्कृष्टतपकारक । ये तीनों गोचरी गये हों और थकान के कारण बैठना पड़े तो बैठ सकते हैं। यह सोलहवाँ संयम स्थान है । ६० । वाहिओ वा अरोगी वा, सिणाणं जो उ पत्थए । वुक्कं तो होड़ आयारो, जढो हवइ संजमो ॥ ६१ ॥ संति मे सुहमा पाणा, घसासु जे अभिक्खु सिणार्यंतो, भिलुगासु अ। विअडेणुप्पलावए ॥ ६२ ॥ तम्हा ते .न सिणायंति, सीएण उसिणेण वा । जावज्जीवं वयं घोरं, असिणाण सिणाणं अदुवाकक्कं, लुद्धं पउमगाणि महिट्ठगा ॥ ६३ ॥ अ। नायरंति कयाइवि ॥ ६४ ॥ गायसुव्वट्टणट्टाए, जो साधु व्याधिग्रस्त रोगी या निरोग स्वस्थ है, और वह स्नान करने की इच्छा करता है, तो श्री दशवैकालिक सूत्रम् / ७८

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