Book Title: Dashvaikalaik Sutra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 118
________________ अलोलुए अक्कुहुए अमाई, अपिसुणे यावि अदीणवित्ती। नो भावए नो विय भावियप्पा, अकोउहल्ले य सया स पूज्जो॥१०॥ जो रसलोलुप नहीं है, जो इन्द्रजालादि नहीं करता, कुटिलता रहित है, चुगली नहीं करता, अदीन वृत्ति युक्त है, न स्वयं किसी के अशुभ विचारों में निमित्त बनता है, न स्वयं अशुभ विचार करता है, न स्वयं प्रशंसा करता है, न स्वयं की प्रशंसा दूसरों से करवाता है, और कौतुकादि कोतुहल से निरंतर दूर रहता है। वह मुनि पूज्य है॥१०॥ गुणेहिं साह अगुणेहिंसाह, गेहोहि साहु-गुण मूंचऽसाहू। वियाणिया अप्पग-मप्पएणं, जो राग दोसेहिं समो स पूज्जो॥११॥ गुणों के कारण साधु एवं अगुण (दुर्गुण) के कारण असाधु होता है, अत: साधु के गुणों को (साधुता) को ग्रहण कर, असाधुता को छोड़ दे। इस प्रकार जो मुनि अपनी आत्मा को समझाता है, एवं राग द्वेष के प्रसंग पर समभाव धारण करता है। वह मुनि पूज्य है॥११॥. तहेव डहरं च महल्लगं वा, इत्थीं पुमं पव्वइयं गिहिं वा। नो हीलए नोऽवि य खिंसएज्जा, थं भं च कोहं च चए स पूज्जो॥१२॥ और जो साधु लघु या वृद्ध (स्थविरादि) की, स्त्री-पुरूष की, प्रवजित या गृहस्थ की, हीलना न करें बार-बार लज्जित न करे (खींसना न करे) और तनिमित्त भूत मान एवं क्रोध का त्याग करे वह मुनि पूज्य है॥१२॥ जे माणिया सययं माणयन्ति, उत्तेण कन्नं न निवेसयन्ति। ते माणए माणरिहे तवस्सी, जिइन्दिए सच्चरए स पुज्जो॥१३॥ जो गुरु शिष्यों के द्वारा सम्मानित किये जाने पर शिष्यों को सतत् सम्मानित करते हैं, श्रुत ग्रहण करने हेतु उपदेश द्वारा, प्रेरित करते है, और माता-पिता, कन्या को यत्नपूर्वक सुयोग्य पति प्राप्त करवाते हैं। सुयोग्य कुल में स्थापित करते हैं। उसी प्रकार जो आचार्य सुयोग्य शिष्य को सुयोग्य मार्ग पर स्थापित करते है। योग्यतानुसार पद विभूषित करते है। ऐसे माननीय पूजनीय, तपस्वी, जितेन्द्रिय सत्यरत आचार्य भगवंत को जो मान देता है वह शिष्य पूजनीय है॥१३॥ तेसिं गुरूणं गुणसायराणं, सोच्चाण मेहावी सुभासियाई। चरे मुणी पंच-रए ति गुत्तो, चउक्कसाया-वगए स पुज्जो॥१४॥ जो बुद्धिनिधान मुनि गुणसागर गुरूओं के शास्त्रोक्त सुवचन को श्रवणकर पंच महाव्रतों से युक्त, तीन गुप्ति से गुप्त एवं चार कषायों से दूर रहता है वह मुनि पूज्य है॥१४॥ गुरूमिह सययं पडियरिय मुणी, जिणमय-निउणे अभिगम-कुसले। धुणिय रयमलं पुरेकडं, भासुर-मउलं गई वइ॥त्ति बेमि॥१५॥ श्री जिन कथित धर्माचरण में निपुण, अभ्यागत मुनि आदि की वैयावच्च में कुशल साधु निरंतर आचार्यादि की सेवादि द्वारा पूर्वोपार्जित कर्मरज को दूर कर ज्ञान तेज से अनुपम ऐसी उत्तम सिद्धि गति में जाता है॥१५॥ श्री शयंभवसूरीश्वरजी कहते है कि तीर्थंकरादि के कहे अनुसार मैं कहता हूँ। श्री दशवैकालिक सूत्रम् / ११५

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