Book Title: Dashvaikalaik Sutra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 130
________________ जैसे पंक में फंसा हुआ हाथी पश्चाताप करता है वैसे श्रमण पर्याय छोड़ने के बाद पुत्र, स्त्री आदि के प्रपंच में फंसा हुआ कर्म प्रवाह से व्याप्त बनकर पश्चात्ताप करता है॥८॥ अज आहे गणी हुंतो, भाविअप्पा बहुस्सुओ। - जइ र रमंतो परिआए, सामने जिणदेसिए॥९॥ कोई बुद्धिमान आत्मा इस प्रकार पश्चाताप करता है, कि “ जो मैं जिन कथित श्रमण पर्याय में स्थिर रहा होता तो भावितात्मा, बहुश्रुत होकर आज मैं आचार्य पद को प्राप्त किया होता॥९॥ देवलोग-समाणो अ परिआओ महेसिणं। रयाणं अरयाणं च महानरय-सारिसो॥१०॥ दीक्षा पर्याय में आसक्त जिन महात्माओं को यह चारित्र पर्याय देवलोक समान लगता है वही, दिक्षा पर्याय में अप्रीति रखने वाले विषयेच्छु-जैन वेषविडंबकों को पामरजन को महानरक समान लगता है।१०। अमरोवमं जाणिअ सुक्खमुत्तमं, रयाण परिआइ तहारयाणं। निरओवर्म जाणिअ दुक्खमुत्तमं, रमिज्ज तम्हा परिआइ पंडिए॥११॥ श्रमण पर्याय में रक्त आत्मा को देव समान उत्तम सुख जानकर और श्रमण पर्याय में अप्रीति धारक आत्मा को नरक समान भयंकर दुःख जानकर पंडित पुरूषों को दीक्षा पर्याय में आसक्त रहना चाहिये। "धर्म भ्रष्ट की अवहेलना" ___धम्माउ भट्ठ सिरिओ अवेयं, जनगि विज्झाअ-मिवप्यते। हीलंति णं दुविहिरं कुसीला, दादुढिअं घोर विसं व नागं॥१२॥ चारित्र धर्म से भ्रष्ट, तपरूप लक्ष्मी से रहित, मुनि अयोग्य आचरण के कारण यज्ञाग्नि के सम निस्तेज होकर राख सम कदर्थना प्राप्त करता है। सहचारी उसकी अवहेलना करते हैं। दाढे उखाड़ लेने के बाद घोर विष घर सर्प की अवहेललना लोग करते हैं। वैसे ही दीक्षा से भ्रष्ट व्यक्ति की लोग अवहेलना करते हैं। इहेवग्धम्मो अयसो अकित्ती, दुनामधिज्जं च पिहुज्जणमि। चुअस्स धम्माउ अहम्म सेविणो, सभिन्न वित्तस्स य हिडओ गइ॥१३॥ धर्म भ्रष्ट आत्मा को इस लोक में लोग अधर्मी शब्द से संबोधित करते हैं, सामान्य नीच वर्ग में भी उसकी अपयश, अपकीर्ति एवं बदनामी के द्वारा अवहेलना होती है। स्त्री परिवारादि निमित्ते छकाय हिंसक बनकर अधर्म सेवी एवं चारित्र के खंडन से क्लिष्ट अशुभ कर्मों का बंध कर सकादि गतियों में चला जाता हैं। भुंजित्तु भोगाई पसज्झ चेअसा, तहाविहं कटु असंजमं बहुं। गई च गच्छे अणहिझिअं दुहं, बोही अ से नो सुलहा पुणो पुणो॥१४॥ श्री दशवैकालिक सूत्रम् / १२७

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