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"विनय विधि"
जस्सन्तिए धम्मपयाई सिक्खे, तस्सन्तिए... वेणइयं पउंजे। सक्कारए सिरसा पंजलीओ, कायग्गिरा भो मणसा य निच्चं ॥१२॥
जिस सद्गुरु के पास धर्म पदों का शिक्षण ले रहा है, उनके समीप विनय धर्म का पालन करें। उनका सत्कार करना, पंचांग प्रणिपात, हाथ जोड़ कर मत्थएण वंदामि कहना, मन, वचन, काया से नित्य उनका सत्कार सन्मान करना।१२।
लज्जा-दया-संजम-बंभचेरं, कल्लाण-भागिस्स विसोहि-ठाणं। जे मे गुरु सयय-मणुसासयन्ति, तेऽहं गुरुं सययं पूययामि॥१३॥
लज्जा,दया,संयम और ब्रह्मचर्य ये चारों मोक्षाभिलाषी मुनि के लिए विशोधिस्थान है, जो सद्गुरू मुझे इन चारों के लिए सतत हित शिक्षा देते हैं। अत: मैं उन सद्गुरु भगवंत की नित्य पूजा करता हूँ। इस प्रकार शिष्यों को सतत् विचार, चिंतन करना चाहिये। उनकी प्रत्येक आज्ञा का पालन करना यही सद्गुरु की वास्तविक पूजा है।१३। । "आचार्य भगवंत की गुण गर्मित स्तुति"
जहा निसन्ते तवणच्चिमाली, पभासई केवल-भारहं तु। एवायरिओ सुय-सील-बुद्धिए, विरायइ सुरमझे व इन्दो॥१४॥
जिस प्रकार रात्रि के व्यतीत होने पर दिन में प्रदिप्त होता हुआ सूर्य संपूर्ण भरत क्षेत्र को प्रकाशित करता है, वैसे शुद्ध श्रुत, शील, बुद्धि संपन्न सद्गुरु आचार्य भगवंत जीवादि पदार्थों के संपूर्ण स्वरुप को प्रकाशित करते हैं और जैसे देवताओं के समूह में इन्द्र शोभायमान है, वैसे सद्गुरु आचार्य भगवंत मुनि मंडल में शोभायमान है।१४।। ..जहा ससी कोमुई-जोग-जुत्तो, नक्खत्त-तारागण - परिवुडप्या। . खे सोहइ विमले अन्ममुक्के, एवं गणी सोहई भिक्खु मझे॥१५॥
जिस प्रकार कार्तिक पूर्णिमा के दिन बादलों से रहित निर्मल आकाश में नक्षत्र और तारांगण से परिवृत्त चंद्रमा शोभायमान है। वैसे साधु समुदाय में गणि सद्गुरु आचार्य भगवंत शोभायमान है॥१५॥
महागरा आयरिया महेसी, समाहि-जोगे सुय-सील-बुद्धिए। सम्पाविउ-कामे अणुत्तराई, आराहए तोस इ धम्म-कामी॥१६॥
अनुत्तर ज्ञानादि भाव रत्नों की खान समान समाधि, योग, श्रुत, शील, एवं बुद्धि के महान. धनी, महर्षि आचार्य भगवंत के पास से सर्वोत्कृष्ट ज्ञानादि प्राप्ति के लिए सुशिष्यों को विनय करने के द्वारा आराधना करना। एक बार ही नहीं, कर्म निर्जरार्थे बार-बार विनय करने के द्वारा आचार्य भगवंत को
प्रसन्न करना।१६।
श्री दशवैकालिक सूत्रम् / १०८