Book Title: Dashvaikalaik Sutra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 110
________________ जो पावगं जलिअ - मवक्कमिज्जा, आसी विसं वा वि हु को वा विसं खायइ जीविअट्ठी, एसोवमासायणया जो जिस प्रकार कोई व्यक्ति जीने के लिए जल रही अग्नि में खड़ा रहता है या आशीविष सर्प को क्रोधित करता है या कोई विष का आहार करता है तो वह जीवित नहीं रह सकता, वैसे ही। ये उपमाएँ धर्माचरण हेतु गुरू की अवहेलना करने वाले के लिए समान रुप से है। अम्नि, सर्प एवं विष जीवितव्य के स्थान पर मरण के कारणभूत है। वैसे ही सद्गुरु की आशातना पूर्वक की गई मोक्षसाधना संसार वृद्धि का कारण है । ६ । सिया हु से पावय नो डहेज्जा, सिया विसं हालहलं न मारे, वईजा । गुरुणं ॥ ६ ॥ आसीविसो वा कुविओ न भक्खे । न यावि मोक्खो गुरु- हीलणाए ॥ ७ ॥ संभव है कि अग्नि न जलावे, कुपित आशीविष दंश न दे, हलाहल विष न मारे पर सद्गुरु भगवंत की अवहेलना से मोक्ष कभी नहीं होगा । ७ । जो पव्वयं जो सिरसा भेत्तु-मिच्छे, सुत्तं व सीहं पडिबोहएज्जा । सत्ति - अग्गे पहारं, एसोवमासायणया गुरुणं ॥ ८ ॥ वा दए कोई व्यक्ति मस्तक से पर्वत छेदन करना चाहे, या सुप्त सिंह को जगाये, या शक्ति नामक शस्त्र पर हाथ से प्रहार करता है। ये तीनों जैसे अलाभकारी है। वैसे सद्गुरू की आशातना अलाभकारी है । ८ । . सिया हु सीसेण गिरिं पि भिन्दे, सिया हु सीहो कुविओ न भक्खे | सिया न भिन्दिज्ज व सत्ति अग्गं, न या वि मोक्खो गुरू - हीलणाए ॥ ९ ॥ संभव है कि प्रभावक शक्ति के कारण मस्तक से पर्वत का भेदन हो जाय, मंत्रादि के सामर्थ्य से कुपित सिंह भक्षण न करे, शक्ति नामक शस्त्र हाथ पर लेश भी घाव न करे, पर गुरु की आशातना से मोक्ष कभी नहीं होगा । ९ । "सद्गुरू की प्रसन्नता / कृपा आवश्यक " अबोहि- आसायण नत्थि गुरुप्यसायाभिमुह तम्हा कंखी, आयरिय- पाया पुण अप्यसन्ना, अणाबाह- सुहाभि सद्गुरु की अप्रसन्नता से मिथ्यात्व की प्राप्ति, सद्गुरु की आशातना से मोक्ष का अभाव है अगर ऐसा है तो अनाबाध, परिपूर्ण, शाश्वत सुखाभिलाषी मुनियों को जिस प्रकार सद्गुरु प्रसन्न रहे सद्गुरु की कृपा प्राप्त हो। उस अनुसार प्रवृत्ति करना चाहिये । १० । जहाहि - अग्गी एवायरियं जलणं नमसे, उवसि एज्जा, नाणा अणन्त-नाणोवगओ विसन्तो ॥ ११ ॥ जिस प्रकार आहिताग्नि ब्राह्मण / होम हवन करनेवाला पंडित मंत्रपदों से संस्कारित अग्नि को नमस्कार करता है। उसी प्रकार शिष्य अनंत ज्ञानवान होते हुए भी सद्गुरु आचार्य भगवंत की विनयपूर्वक सेवा करें। ज्ञानी शिष्य के लिए यह विधान है, तो सामान्य शिष्य के लिए तो कहना ही क्या ? । ११ । श्री दशवैकालिक सूत्रम् / १०७ मुक्खो । रमेज्जा ॥ १० ॥ हुई - मन्त-पया - भित्तिं ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140