Book Title: Dashvaikalaik Sutra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 114
________________ "अविनीत आत्मा की देवलोक में दुर्दशा" तहेव अविणीअप्पा, देवा जक्खा य गुज्झगा। दीसन्ति दुहमेहन्ता, अभिओग-मुवट्टि या॥१०॥ विनयहीन आत्मा को जन्मान्तर में देव योनि मिले तो वैमानिक ज्योतिषी, व्यंतर भवनपति आदि देवों की सेवा, अस्पृश्यता आदि के द्वारा दुःखानुभव होता है। ऐसा भावनयन से दिखाई देता है अर्थात् ज्ञान चक्षु से दिखाई देता है।१०। । सुविनीत आत्मा को देवलोक में सुखानुभव" तहेव सुविणीअप्पा, देवा जक्खा अ गुज्झगा। दीसन्ति सुहमेहन्ता, इहिं पत्ता महायसा॥११॥ . उसी प्रकार सुविनीत आत्मा भवान्तर में वैमानिक, ज्योतिषी, व्यंतर, भुवनपति आदि देवलोक में इन्द्रादि की विशिष्ट दिव्य ऋद्धि को प्राप्त कर, महायशस्वी होकर श्री अरिहंत भगवंत के कल्याणक आदि के द्वारा महान पुण्योपार्जन करते हुए महानंद, महासुख के भागी होते हैं। "सद्गुरु विनय एवं विनय का फल" जे आयरिय-उवज्झायाणं, सुस्सूसा-वयणंकरा। तेर्सि सिक्खा पवड्ढन्ति, जलसित्ता इव पायवा॥१२॥ ___ जो मुनि आचार्य भगवंत, उपाध्याय भगवंत,(एवं मुनि भगवंत) की विनयपूर्वक सेवा करता है, आज्ञा पालन करता है, उनकी ग्रहण एवं आसेवन शिक्षा उसी प्रकार बढ़ती है, जैसे जल से सिंचित वृक्ष।१२। अप्पणट्ठा परट्ठा वा, सिप्पा नेउणियाणि य। गिहिणो उवभोगट्ठा, इह लोगस्स कारणा॥१३॥ जेण बन्धं वहं घोरं, परिआवं च दारूणं। सिक्खमाणा नियच्छन्ति, जुत्ता ते ललिइन्दिआ॥१४॥ तेऽवि तं गुरुं पूयन्ति, तस्स सिप्पस्स कारणा। • सक्कारेन्ति नमंसन्ति, तुट्ठा निद्देस-वत्तिणो॥१५॥ किं पुण जे सुअग्गाही, अणन्त-हियकामए। आयरिया जं वए भिक्खू, तम्हा तं नाईवत्तए॥१६॥ जो गृहस्थ अपने और पराये के लिए शिल्पकला आदि में निपुणता, प्रवीणता, चित्रकला आदि में कौशल्यता प्राप्त करने हेतु कलाचार्य गुरु के द्वारा आवश्यकतानुसार दारुण वध, बन्धन परिताप, कष्ट को गर्भश्रीमंत राजकुमारादि भी सहन करते है एवं वे कलाचार्य गुरु की सेवा पूजा करते हैं। उनकी आज्ञा का पालन करते हैं।(भौतिक कलाओं की प्राप्ति हेतु कष्ट सहन करते हुए भी आनंद पूर्वक गुरु सेवा करते हैं। तब वे कला प्राप्त कर सकते हैं) श्री दशवैकालिक सूत्रम् / १११

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