Book Title: Dashvaikalaik Sutra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 107
________________ प्रथम उद्देश्य नवम् विनयसमाधि अध्ययन के उपयोगी शब्दार्थ अभईभावो अज्ञानभाव, कीअस्स बांस के फल।१। विइत्ता जानकर, डहरे छोटी आयुवाले, पडिवज्जमाणा स्वीकार करके।। पगइइ स्वभाव से, सिहिरिव अग्नि जैसा भास भस्म।३। निअच्छाई प्राप्त करता है जाहपहं जाति पंथ आसीविसो दाढ में विष वाला सर्प सुरुट्ठो विशेष क्रोधित।५। जलिअं जलती, अवक्कमिज्जा खड़ा रहता है या लांघता है, कोवइज्जा क्रोधित करना,असोवमा यह उपमा।६। डहेज्जा जलाना, हालहलं हलाहल नामक विष।७। रमेज्जा रहना, वर्तना, पसायाभिमुहो प्रसन्न करवाने में तत्पर।१०। सत्तिअग्गे शक्ति की धार पर। ८। जहाहिअम्गी जैसे होम करनेवाला ब्राह्मण, नाणाहुइ अनेक प्रकार की आहुति से उवचिट्ठज्जा सेवे, मंतपयाभिसित्तं मंत्र पदों से अभिषिक्त, अणंत नाणोवगओवि अनंत ज्ञान युक्त भी।११। जस्सन्तिओ जिनके पास।१२। निसंते रात्रि का अंतिम समय, तवणच्चिमाली प्रकाशमान सूर्य, पभासई प्रकाश करता है, विरायइ शोभित है।१३। कोमुई कार्तिक पूर्णिमा के रात का चंद्र प्रकाश, परिवुडप्या परिवृत्त खे आकाश में अब्ममुक्के बादलों से मुक्त।१५। महागरा महान् खान जैसे, महेसि मोक्ष की बड़ी इच्छा वाले, संपाविउकामे मोक्ष प्राप्ति की इच्छा युक्त।१६। आराहइत्ताण आराधन कर।१७। द्वितीय उद्देश्य समुवेन्ति सम्यक् उत्पन्न होता है, विरुहन्ति विशेष कर उत्पन्न होता है।१। सिग्धं प्रशंसा योग्य, चण्डे क्रोधी, मिले अजाण, थध्ये स्तब्ध, अहंकारी, नियडी कपटी मायावी, सढे सठ वुज्झइ प्रवाहित होता है सोयगयं प्रवाहगत।३। उवाअणं उपाय से चोइओ प्रेरित इज्जन्ति आती ऐसी पडिसेहो लौटा दे, निषेध करे।४। उववज्झा राजा आदि लोगों के,अहन्ता भोगते ऐसे।५। छाया चाबुक के मार से व्रण युक्त देहवाला।६। परिजुण्णा दुर्बल बना हुआ, कलुणा दया उत्पन्न हो वैसा, विवन्नछन्दा पराधीन रहे हुए, असब्ध असभ्य, खुप्पिवासा परिगया क्षुधा प्यास से पीड़ीत।८। गुज्झग्गा भवनपति, आभिओगं दासत्व, उवडिआ पाये हुआ।१०। पायवा वृक्ष जलसित्ता जल से सिंचित।१२। नेउणियाणि निपुणता।१३। ललिइंदिया गर्भश्रीमंत।१४। निद्देसवत्तिणो आज्ञाधिन।१५। सुयग्गाहि श्रुतज्ञानग्राही, अणंत हिंय कामओ मोक्षकामी, नाइवत्तओ उल्लंघन न करे।१६। उवहिणामवि उपधि पर।१८। दुग्गओ अड़ियल वृषभ, पओओणं चाबुक से, वुत्तोवुत्तो बार-बार कहने से।१९। पडिस्सुणे उत्तर देना, छंदोवयारं गुरु इच्छा को, संपडिवायजे सम्प्रतिपादन करना, पूर्ण करना।२०। विवत्ती विनाश अभिगच्छइ पाता है।२१। साहस अकृत्य करने में तत्पर, अकोविओ न जाननेवाला, हीण पेसणे गुरु आज्ञा को न माननेवाला। २२। ओहं संसार समुद्र को।२३।। "तृतीय उद्देश्य" सुस्सूमाणो सेवा करते हुए आलोइयं नजर, दृष्टि, इंगिवयं इंगित (बाहर के आकार का परिवर्तन) छन्दं आचार्य की इच्छानुसार।१। परिगिज्झ ग्रहण करे जहोवइट जैसा कहा वैसा।२। नियत्तणे श्री दशवैकालिक सूत्रम् /१०४

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