Book Title: Dashvaikalaik Sutra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 97
________________ मुनि तृण, वृक्ष, और किसी भी जाति के फल एवं मूल का छेदन भेदन न करें एवं विविध प्रकार के कच्चे बीजों को ग्रहण करने हेतु मन में विचार भी न करें । १० । गहणे सु न चिट्टिज्जा, निच्च, उदगंमि तहा मुनि जहां खड़े रहने से वनस्पति का संघट्टा होता हो ऐसे वन निकुंजों (गाढझाड़ी) में खड़ा न रहे बीज, हरी वनस्पति, उदक या अनंत कायिक वनस्पति, उत्तिंग सर्पछत्र, पांचवर्ण की सेवाल / काई पर खड़ा न रहे । ११ । " सकाय की रक्षा" तसे पाणे म हिंसिज्जा, वाया अदुव उवरओ सव्वभूएसु, पासेज्ज विविर्ह बीएस हरिएसु उत्तिंग पणगेसु 66. 'अष्ट प्रकार के सूक्ष्म जीवों का स्वरुप" मुनि वचन या काया से उपलक्षण से मन से भी त्रस जीव की हिंसा न करें। सभी प्राणीयों की हिंसा से उपरत होकर, निर्वेद की वृद्धि, हेतु कर्म से पराधीन नरकादि गति रुप विविध प्रकार के जगत के जीवों के विषय में विचार करें। आत्मौपम्य दृष्टि से देखें । गहराई से देखें | १२ | "अट्ठसुहुमाई पेहाए, जाई जाणित्तु दयाहिगारी भूएसु, आस चिट्ठ सएहि वा । वा ॥ ११ ॥ कम्मुणा । जगं ।। १२ ।। आठ सूक्ष्म निम्न प्रकार से हैं : संजएं" वा ॥ १३ ॥ मुनि को आगे कहे जाने वाले आठ जाति के सूक्ष्म जीवों को जानना चाहिये। इन सूक्ष्म जीवों को जानने वाला जीव दया का अधिकारी मुनि बनता है। इन सुक्ष्म जीवों का ज्ञान प्राप्त करने के बाद बैठना, उठना खड़े रहना एवं सोना आदि क्रिया निर्दोष रुप से हो सकती है । १३ । कयराई अट्ठ सुहमाई, जाई पुच्छिज्ज संजए । ईमाई ताईं मेहावी, आईखिज्ज विअक्खणे ॥ १४ ॥ वे आठ सूक्ष्म कौन-कौन से हैं? ऐसा संयमी शिष्य के प्रश्न के प्रत्युत्तर में विचक्षण मेधावी आचार्य गुरु भगवंत निम्न प्रकार से शिष्य का समाधान करें । १४ । तहेव सिणेहं पुप्फ सुहुमं च पाप्णुत्तिंगं पणगं बीअ - हरिअं च, अंड सुहमं च एवमेआणि जाणित्ता, सव्वभावेण अप्पमंतो जए निच्च, सव्विंदिअ श्री दशवैकालिक सूत्रम् / ९४ य । अट्ठमं ।। १५ ।। संजए। समाहिए ॥ १६ ॥

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