Book Title: Dashvaikalaik Sutra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 104
________________ आचार प्रज्ञप्ति के धारक एवं दृष्टिवाद के अध्येता संभवतः प्रकृति, प्रत्यय, लिंग, काल, कारक, वर्ण में स्खलित हो गये हों,बोलने में प्रमादवश भूल हो गई हो तो उनका उपहास न करें। ५०। "निमित्त मंत्र तंत्र से रहित साध्वाचार पालन" नक्खत्तं सुमिणं जोगं, निमित्तं मंत-भेसजं। गिहिणो तं न आइक्खे, भूआहिगरणं पर्य॥५१॥ मुनि नक्षत्र, स्वप्न, वशीकरणादि योग, निमित्त मंत्र, औषध आदि गृहस्थों से न कहें। कारण है कि कहने से एकेन्द्रियादि जीवों की विराधना होती है। गृहस्थों की अप्रीति दूर करने हेतु कहें कि इन कार्यो में मुनियों को बोलने का अधिकार नहीं है। "मुनि कहां रहे? अन्नटुं पगडं, लयणं, भइज्ज. सयणासणं। उच्चार भूमि-संपन्नं, ईत्थी-पसु-विवज्जि॥५२॥ दूसरों के लिए बनी हुई, स्थंडिल मात्रा की भूमि सहित, स्त्री, पशु रहित स्थान में मुनि रहे एवं संस्तारक और पाट पाटला आदि दूसरों के लिए बने हुए प्रयोग में लें।५२। मुनि परिचय किससे करें? विवित्ता अ भवे सिज्जा, नारीणं न लवे कह। गिहि संथवं न कुज्जा, कुज्जा साहहिं संथवं॥५३॥ - दूसरे मुनि या भाई-बहन से रहित एकान्त स्थान में अकेली स्त्रिओं को मुनि धर्म कथा न कहें, शंकादि दोषों का संभव है, उसी प्रकार गृहस्थियों का परिचय मुनि न करें मुनि मुनियों से परिचय करे।५३। "स्त्री से दूर रहने हेतु उपदेश" जहा कुक्कुड-पोअस्स, निवं कुललओ भयं। एवं खु बंभयारिस्स, ईत्थी-विग्गहओ भयं॥५४॥ चित्तभित्तिं न निज्झाए, नारिं वा सु-अलंकि। भक्खरं पिव दवणं, दिदि । पडिसमाहरे॥५५॥ हत्थ-पाय-पडिच्छिन्न, कन्न-नास-विगप्पि। अवि वाससयं नारि बंभयारी विवज्जए॥५६॥ विभूसा ईत्थि-संसग्गो, पणीअं रस भोअणं। नरस्सत्त-गवेसिस्स, विसं तालउडं जहा॥५७॥ श्री दशवकालिक सूत्रम् /१०१

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