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रात को गोचरी जाते समय आहार सचित्त जल से भीगा हुआ हो या बीजादि से मिश्र हो और मार्ग/राह में संपातिम प्राणी रहे हए हो तो दिन में तो उनका त्याग किया जा सकता है, पर रात को उसका त्याग कर, कैसे चल सके ?।२५।
इस प्रकार अनेक दोषों को देख कर ज्ञातपुत्र श्री महावीर परमात्मा ने कहा कि - श्रमणों को चारों प्रकार के आहार का रात को सर्वथा त्याग करना चाहिये। २३ से २६।
श्रमण भगवंत को तप वही करने का कहा है जिस तप से संयम धर्म पालन में दोष सेवन न करना पड़े। दोष सेवन कर तप करना जिनाज्ञा विरूद्ध है। आधाकर्मादि दोषयुक्त आहार खाकर तप करने की अपेक्षा नित्य निर्दोष गोचरी से एकासन का तप करना जिनाज्ञा की आराधना है। सप्तम स्थान पृथ्वीकाय की जयणा"
पुढविकायं न हिंसंति, मणसा वयसा कायसा। तिविहेणं करण जो एणं, संजया सुसमाहिआ॥२७॥ पुढविकार्य विहिंसंतो, हिंसइ उ तयस्सिए। तसे अ विविहे पाणे चक्खुसे अ अचक्खुसे॥२८॥ तम्हा एअं विआणित्ता, दोसं दुग्गइ वड्ढणं।
पुढवि काय समारंभ, जावजीवाई वजए॥२९॥ सुसमाहित साधु भगवंत पृथ्वीकाय की मन-वचन-काया से हिंसा करते नहीं, करवाते नहीं, करने वाले की अनुमोदना नहीं करते। पृथ्वी काय की हिंसा करते समय उसकी निश्रा में रहे हुए त्रस जीव और दूसरे भी विविध प्राणिओं की जो चक्षु से दृश्य, अदृश्य हैं उसकी हिंसा हो जाती है। पृथ्वीकाय की हिंसा में दूसरे प्राणिओं की हिंसा भी होती है यह दोष दुर्गतिवर्द्धक होने से पृथ्वीकाय के समारंभ का त्याग जावज्जीव तक करना, यह सप्तम संयम स्थान है। २७ से २९। अष्टम स्थान अप्काय की जयणा"
आउकार्य न हिंसंति, मणसा वयसा कायसा। तिविहेण करण जोएणं, संजया सुसमाहिआ॥३०॥
आउ कार्य विहिंसंतो, हिंसई उ तयस्सिए। तसे अ विविहे पाणे, चक्खुसे अ अचक्खुसे॥३१॥ तम्हा एअं विआणित्ता, दोसं दुग्गइ वड्ढणं। आउकाय. समारंभ, जावजीवाई वजए॥३२॥
श्री दशवैकालिक सूत्रम् / ७३