Book Title: Dashvaikalaik Sutra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 69
________________ तव तेणे वंय तेणे, रूवतेणे अ जे नरे। आयार भाव तेणे अ कुव्वई देव किविसं॥४६॥ लध्धूण वि देवत्तं, उववन्नो देव किविसे। तत्थावि से न याणाइ किं मे किच्चा इमं फलं॥४७॥ तत्तो वि से चइताणं, लम्भिही एलमूअगं। नरगं तिरिक्ख जोणिं वा, बोहि जत्थ सुदुल्लहा ॥८॥ तप, वचन, रुप, आचार एवं भाव चोर ये पांचो प्रकार के चोर चारित्र का शुद्ध पालन करते हुए भी किल्बिष देव भव में उत्पन्न होते हैं, किल्बिष देव भव प्राप्त हो जाने के बाद वहां भी निर्मल अवधिज्ञान न होने से मैंने ऐसा कौन-सा अशुभ कार्य किया जिससे मुझे किल्बिष देव भव मिला। वह साधु वहां से देव भवायु पूर्णकर मनुष्यादि भव में बकरे के जैसा मुक पना प्राप्त करेगा और परंपरा से नरक तिर्यंचादि की योनि को प्राप्त करेगा। जहां जैनधर्म की, सम्यग्दर्शन की प्राप्ति दुर्लभ है॥४६से ४८॥ आगमोक्त तप न कर स्वयं को तपस्वी मानने मनवानेवाला तप चोर, आगमोक्त ज्ञान न होने पर एवं स्वयं शास्त्रोक्त व्याख्याता न होने पर भी स्वयं को ज्ञानी एवं व्याख्याता मानने, मनवानेवाला, स्वयं राजकुमार आदि न होते हुए भी किसी के पूछने पर मौन धारण कर्ता रुप चोर, स्वयं आचारहीन होते हुए भी आचारवान् मानने, मनवानेवाला आचार चोर एवं आत्मरमणता न होते हुए भी स्वयं को अध्यात्मिक पुरुष मानने, मनवाने वाला भाव चोर। इन पांच प्रकार के चोरों की संक्षिप्त व्याख्या है। "ज्ञातपुत्र ने कहा" एअं च . दोसं ठूणं, णायपुत्तेण भासि। अणुमायपि मेहावी, मायामोसं विवज्जए॥४९॥. साध्वाचार का पालन करने पर भी किल्बिष देव होने रुप दोषों को देखकर ज्ञातनंदन श्री महावीर परमात्मा ने कहा है कि हे बुद्धिवान् मेधावी साधु! अंशमात्र भी माया मृषावाद पालन का त्याग कर॥४९॥ साध्वाचार का पालन करनेवाला माया करता है, असत्य बोलता है, उसकी यह दशा श्री महावीर परमात्मा ने कही है। तो जो साध्वाचार का पालन ही न करे एवं माया मृषावाद का पालन करें उसकी क्या दशा होगी! उपसंहार सिक्खिऊण भिक्खेसणसोहिं, संजयाण बुद्धाणं सगासे। तत्थ भिक्खू सुप्पणिहि इंदिए, तिव्वलज्जगुणवं विहरिज्जासि॥५०॥ ति बेमि॥ "पंचम पिण्डैसणानामज्झयणं समत्तं" सुत्रकार श्री पिण्डैसणा अध्ययन की समाप्ति के समय कह रहे हैं कि “तत्व के जानकार तत्वज्ञ संयमयुक्त गुरु आदि के पास पिण्डैषणा की शुद्धि को सीख कर, उस एषणासमिति में पांचों इन्द्रियों से उपयोगी बनकर एवं अनाचारादि सेवन में तीव्रलज्जा युक्त होकर, पूर्व में कहे हुए साधु गुणों को धारण कर विचरें। ऐसा श्री महावीर परमात्मा द्वारा कहा हुआ परंपरा से प्राप्त मैं कहता हूँ।" श्री दशवैकालिक सूत्रम् / ६६

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