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दाता के आग्रह से या भूल से (मन का पूर्ण उपयोग न रहने से) ऐसा जल आ गया हो तो, वह जल पीना नहीं, दूसरों को देना नहीं। एकान्तस्थल में जाकर अचित्त भूमि पर चक्षु से पडिलेहन कर जयणा पूर्वक परठना चाहिये उपाश्रय में आकर इरियावही करनी चाहिये॥७५ से ८१॥ "गोचरी कब कैसे करें?"
सिआअ गोयरगगओ इच्छिज्जा परिभुत्तु। कुटुगं भित्तिमूलं वा, पडिलेहिताण फासुअं॥४२॥ अणुन्नवित्तु मेहावी, पडिच्छन्नंमि संवुडे। हत्थगं संपमज्जित्ता, तत्थ अँजिज्ज संजए॥८३॥ तत्थ से पूंजमाणस्स अट्ठिअं कंटओ सिआ। तण कट्ठ सक्करं वा वि अन्नं वा वि तहाविहं।। ८४॥ तं उक्खिवित्तु न निक्खिवे, आसएण न छड्डए। हत्थेण तं गहेऊण, एगंतमवक्कमे॥५॥ एगंतमवक्कमित्ता, अचित्तं पडिलेहिआ।
जयं परिविज्जा, परिठप्प पडिकम्मे॥८६॥ गोचरी के लिए अन्य ग्राम में गया हुआ साधु, मार्ग में क्षुधा तृषादि से पीड़ित होकर आहार करना चाहे तो किसी शून्य गृह, मठ, गृहस्थ के घर आदि में दीवारादि का एक भाग सचित्त पदार्थ से रहित पडिलेहन कर, अनुज्ञा लेकर आच्छादित स्थान में इरियावही पूर्वक आलोचना कर, मुहपत्ति से शरीर की प्रमार्जना कर, अनासक्त भाव से आहार करे। आहार करते समय दाता के प्रमाद से बीज, कंटक, तृण, काष्ठ का टुकड़ा, कंकर, या ऐसा कोई न खाने योग्य पदार्थ आ जाय तो हाथ से फेंकना नहीं, मुँह से थूकना नहीं पर हाथ में लेकर एकान्त में जाना, वहां अचित्त भूमि की पडिलेहन कर, उसे परठना परठने के बाद इरियावही करना॥ ८२ से ८६॥ "उपाश्रय में गोचरी करने की विधि"
सिआ य भिक्खू इच्छिज्जा, सिज्जमागम्म भुत्तु। सपिंडपायमागम्म, ... उँडु पडिलहिआ॥८७॥ विणएणं पविसित्ता, सगासे गुरूणो मुणी। इरियावहियमायाय, आगओ अ पडिक्कमे॥८॥ आभोइताण निसेसं, अईआरं जहक्कम। गमणागमणे चे.. व भत्तपाणे व संजए॥८९॥ उज्जुप्पन्नो अणुव्विणो अव्वखित्तेण चे असा। आलोए गुरूसगासे जं जहा गहिअं भवे॥१०॥
श्री दशवैकालिक सूत्रम् / ५७