Book Title: Dashvaikalaik Sutra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 28
________________ से वह गामे वा गाँव में नगरे वा नगर में रणे वा जंगल में अप्पं वा अल्पमूल्यतृण आदि, बहुँ वा बहुमूल्य स्वर्ण आदि अणुं वा हीरा, मणि, पुखराज, आदि थूलं वा काष्ठ आदि चित्तमंतं वा सजीव बालक, बालिका आदि अचित्तमंतं वा अजीव वस्त्र, आभूषण, आदि अदिणं बिना दिये हुए संयं खुद गिणिहजा ग्रहण करे नेव नहीं, अन्नेहिं दूसरों के पास अदिणं बिना दिये हुए गिण्हते ग्रहण करते हुए अन्ने वि दूसरों को भी न समणुजाणेजा अच्छा समझे नहीं, ऐसा जिनेश्वरों ने कहा. इसलिये जावजीवाए जीवन पर्यंत तिविहं कृत, कारित, अनुमोदन रूप त्रिविध अदत्तादान को मणेणं मन वायाए वचन कारणं काया रूप तिविहेणं तीन योग से न करेमि नहीं करूं न कारवेमि नहीं कराऊं करतं करते हुए अन्नं पि दूसरों को भी न समणुजाणामि अच्छा नहीं समझू भंते हे गुरू!तस्स भूतकाल में किये गये अदत्तादान की पडिक्कमामि प्रतिक्रमण रूप आलोयणा करूं निंदामि आत्म-साक्षी से विंदा करूं गरिहामि गुरु-साक्षी से गर्दा करूं अप्पाणं अदत्त लेनेवाली आत्मा का वोसिरामि त्याग करूं भंते हे प्रभो! तच्चे तीसरे महव्वए महाव्रत में सव्वाओ समस्त अदिणादाणाओ अदत्तादान से वेरमणं अलग होने को उवढिओमि उपस्थित हुआ हूं। चतुर्थ महाव्रत की प्रतिज्ञा अहावरे चउत्थे भंते! महव्वए मेहुणाओ वेरमणं सव्वं भंते! मेहुणं पच्चक्खामि। से दिव्वं वा माणुसं वा तिरिक्खजोणियं वा नेव सयं मेहुणं सेविज्जा नेवऽन्नेहिं मेहुणं सेवाविजा मेहुणं सेवंते वि अन्ने न समणुजाणेजा। जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। चउत्थे भंते! महव्वए उवडिओमि सव्वाओ मेहुणाओ वेरमणं। शब्दार्थ-अह इसके बाद भंते हे प्रभो! अवरे आगे के चउत्थे चौथे महव्वए महाव्रत में मेहुणाओ मैथुन सेवन से वेरमणं अलग होना जिनेश्वरों ने कहा है, अतएव भंते हे कृपानिधे! गुरु ! सव्वं सभी प्रकार के मेहुणं मैथुन सेवन का पचक्खामि मैं प्रत्याख्यान करता हूं, से वह दिव्वं वा देव संबन्धी माणुसं वा मनुष्य संबन्धी तिरिक्खजोणियंवा तिर्यंच योनि संबंधी मेहुणं मैथुन सयं खुद सेविजा सेवन करे नेव नहीं, अन्नेहिं दूसरों के पास मेहुणं मैथुन सेवाविजा सेवन करावे नेव नहीं, मेहुणं मैथुन सेवते सेवन करते हुए अने वि दूसरों को भी न समणुजाणेजा अच्छा समझे नहीं, ऐसा जिनेश्वरों ने कहा, - १) 'वा' शब्द से गाँव, नगर और अल्पमूल्य, बहुमूल्य आदि वस्तुओं में तजातीय भेदों को ग्रहण करना चाहिये। २) यहाँ अदिण्णं से,साधुयोग्य वस्तुओं को बिना दी हुई न लेना यह मतलब है। स्वर्ण, रत्न आदि तो साधुओं के अग्राह्य ही है, जो आगे दिखाया जायगा। ३) वा' शब्द से देव, मनुष्य और तिर्यंचों के अवान्तर भेदों को भी स्वयं ग्रहण कर लेना चाहिये। श्री दशवैकालिक सूत्रम् / २५

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