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समझ दोसं द्वेष विकार को छिंदाहि नाश कर रागं प्रेमराग को विणएज दूर कर एवं इस प्रकार से संपराए संसार में सुही सुखी होहिसि होवेगा ।
—भगवान् फरमाते हैं कि साधुओ ! यदि तुम्हें संसार के दुःखों से छूट कर सुखी होने की इच्छा है, तो आतापना' लो, सुकुमारता' को छोड़ो, विषयवासनाओं को चित्त से हटा द्रो, वैर, विरोध और प्रेमराग को जलांजली दो । यदि ऐसा करोगे तो अवश्य दुःखों का अन्त वेगा और अनन्त सुख मोक्ष मिलेगा।
मन कैसे मारे ?.
समाइ पेहाड़ परिव्वयंतो, सिया मणो निस्सरइ बहिद्धा । न सा महं नो वि अहंपि तीसे, इच्चेव ताओ विणइज्ज रागं ॥ ४॥
शब्दार्थ –— समाइ स्व पर को समान देखनेवाली पेहाइ दृष्टि से परिव्वयंतो संयम मार्ग में गमन करते हुए साधु का मणो मन सिया कदाचित् बहिद्धा संयमरूप घर से बाहर निस्सरइ निकले तो सा वह स्त्री महं न मेरी नहीं है अहं पि मैं भी तीसे उस स्त्री का नो वि नहीं हूँ इच्चेव इस प्रकार ताओ उन स्त्रियों के ऊपर से रागं प्रेमभाव को विणइज दूर कर देवे |
- अपनी और दूसरों की आत्मा को समान देखनेवाली दृष्टि से संयमधर्म का पालन करनेवाले साधु का मन, पूर्व भुक्त भोगों का स्मरण हो आने पर यदि संयमरूप घर से बाहर निकले तो वह स्त्री मेरी नहीं है और मैं उस स्त्री का नहीं हूँ' इत्यादि विचार करके स्त्री आदि मोहक वस्तुओं पर से अपने प्रेम - राग को हटा लेना चाहिये ।
" व्रत भंग से मरना अच्छा "
पक्खंदे जलियं जोई, धूमकेउं दुरासयं । नेच्छंति वंतयं भोत्तुं, कुले जाया अंगधणे ॥ ६ ॥
शब्दार्थ - अगंधणे अगन्धन नामक कुले कुल में जाया उत्पन्न हुए सर्प दुरासयं मुश्किल से भी सहन न हो सके ऐसी जलियं जलती हुई धूमकेउं धुआँ वाली जोई अनि का पक्खंदे आश्रय लेते हैं, परन्तु वंतयं उगले हुए विष को भोत्तुं पीने की नेच्छति इच्छा नहीं करते हैं।
सर्पों की दो जाति हैं - गन्धन और अगन्धन । गन्धन जाति के सर्प मंत्र, जड़ी बूटी आदि से खींचे जाने पर खुद दंश मारे हुए स्थान से वान्त - विष को चूस लेते हैं और अगन्धन जाति के सर्प सेंकड़ों मंत्र आदि प्रयोगों से आकृष्ट होने पर भी खुद दंश लगाये हुए स्थान
१ अत्यंत गर्म शिला या रेती में शयन करना, २ विविध तपस्याओं से शरीर की कोमलता को हटा देना. श्री दशवैकालिक सूत्रम् / ९