Book Title: Chatushatak Part 02
Author(s): Vidhushekhar Bhattacharya
Publisher: Visva Bharti Book Shop

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Page 253
________________ 228 CATUHSATAKA [349 dan mtshuns pani rten cin hbrel bar hbyun ba ran bz'in gyis ston pa nid du gyur kyan ran gi no bos ji ltar gnas pa bz'in khon du chud par mi ses te ran bz'in med pa nid du mi hdzin pahi phyir dan | yod pa ma yin pa ran gi no bo la yod paui ran gi no ho nid du lhag par sgro btags na hdzin pahi phyir ro || brjod kyan mi ses te ran bz'in med pa nid du mi brjod pahi phyir dan dnos poui ran gi no bo nid du brjod pahi phyir ro | dehi phyir de ltar rtogs pa dan brjod mi ses pa na bdag nid dan gz'an nid bslu bar byed do || dehi phyir kho bo cag chos tshogs che ba hdir gnas. pas bstan bcos byed paui rtsom pa hdi hbras bu med pa ma yin no || CSV : इह यस्य स्वरूपं स्वभावश्च स्वतन्त्रमपरायत्तं च तस्य खत एव सिधा न प्रतीत्यसमुत्पादः। संस्कृतास्तु सर्वे प्रतीत्यसमुत्पन्नाः। एवं यस्य भावस्य प्रतीत्यसमुत्पादः स न स्वतन्त्रः। हेतुप्रत्ययाभ्यामुत्पादान् न स्वतन्त्रमिदं सर्वम् / तस्माद्यस्य भावस्याधिपतिनं [स] स्वभावेन विद्यते। तस्मादिह प्रतीत्य- . समुत्पन्नस्य स्वतन्त्रस्वरूपविरहात् स्वतन्त्र स्वरूपहितोऽर्थः शून्यतार्थः। न सर्वभावाभावोऽर्थः। तस्मादिह प्रतीत्यसमुत्पन्नं मायावत्। संक्लेशव्यवदानहेत्वपवादात्तदभावदर्शनं विपरीतम् / निःस्वभावत्वाद्भावदर्शनमपि विपरीतम् / तस्मादेवं भावसस्वभावत्ववादिनां प्रतीत्यसमुत्पादाभावः शाश्वतोंच्छेददृष्टिश्च दोषः। अथ यद्यखतन्वार्थः प्रतीत्यसमुत्पादार्थस्तहिं को भवतास्माकं विरोध: कश्च भवतोऽस्माकं विशेष इति। उच्यते। अयं विशेषों यद्भवान्यथा तर्कितमुक्त च प्रतीत्यसमुत्पादं न वेत्ति / यथा व्यवहाराव्य त्पन्नो बालकुमारः प्रतिविम्बस्य सत्यतयाध्यारोपणन यथावदवस्थितस्वभावशून्यतायाकरणात्मस्वभावत्वप्रतीतो प्रतिबिम्बस्य कल्पनां न जानाति भवानपि तथा प्रतीत्यसमुत्पादाभ्युपगमेऽपि प्रतिबिम्बसम प्रतीत्यसमुत्पादं स्वभावेन शून्यताभूतमपि वरूपेण यथावदवस्थितं नावगच्छति निःस्वभावत्वस्याग्रहणादसत्स्वरूपस्य च सत्स्वरूपत्वेनाध्यारोपितस्य ग्रहणात्। उक्तमपि च [ भवान् ] न जानाति। निःस्वभावत्वस्याकथनाद्भावस्वरूपस्य कथना। तमादेवं तर्कितमुक्तं चाज्ञात्वात्मानमन्यं च वञ्चयति [ भवान् ] / तस्मादिहास्माकं महति धर्मरागेऽवस्थानाच्छास्त्रकारस्य नायमारम्भी निरर्थकः // 23 //

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