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भूमिका
राजशक्तिके सिरपर डाला जानेवाल। इस प्रकारका दबाव वास्तव में राज्य. संस्थाके निर्माता समाजपर ही मारमसुधारका नैतिक दबाव डालना होता है। जो स्वयं नहीं सुधरा वह राज्यसंस्थाको कैसे सुधार सकता है ? कोई भी समाज मास्मसुधार किये बिना अपनी राजशक्तिको कदापि नहीं सुधार सकता। संशुद्ध उद्बुद्ध समाजका ही यह भनिवार्य कर्तव्य है कि वह अपने समाजमेंसे अनैतिकताका बहिष्कार करे और उसे बाह्य तथा माभ्यन्तर दोनों प्रकारके आक्रमगोंसे होनेवाली हानिसे सुरक्षित रक्खे ।
व्यक्तियों का हित समाजके हितसे पृथक नहीं है और समाजका भी व्यक्तियोंके हितोंसे पृथक् कोई हित नहीं है। ऐसी परिस्थिति में यदि कोई राज्यसंस्था या समाज व्यक्ति के हितके प्रश्नको व्यक्तिगत प्रश्न कहकर टालता या उसकी उपेक्षा करता है, तो वह राज्यसंस्था और वह समाज दोनोंके दोनों अपराधी हैं, और दोनों ही मासुरी हैं। इसलिये हैं कि व्यक्तियों से अलग तो समाजका कोइ हित ही नहीं है। भादर्शसमाजकी स्त्री हुई राज्यसंस्थाको अनिवार्य रूप से व्यक्तियों की व्यक्तिगत हनियों से अपने मापको ही क्षतिग्रस्त माननेवाली होना चाहिये। उसे किसी भी अत्याचारित नगण्य व्यक्ति तककी क्षतिपूर्ति के लिये एडीसे चोटी तकका समस्त बल लगा देना चाहिये। ऐसा करने पर ही राज्यव्यवस्थाका लोगोंसे कर लेना वैध माना जा सकता है। __ जो राज्यसंस्था अपने इस महान् उत्तरदायित्वको नहीं पालती उसके विषयमें इस प्रकार सोचिये कि जो अत्याचारित व्यक्ति आजतक इस राज्य. संस्थाको अपने करदानसे पालता पा रहा है, और जो राज्य संस्था उससे कर लेना न केवल अपना अधिकार मानती आ रही है, प्रत्युत अत्याचारकी इस घटनाके पश्चात् भी उससे कर लेने का लोभ छोडना नहीं चाहती प्रत्युत मागेको भी लेनेका प्रबन्ध किये बैठी है, इसमें कहां तक औचित्य है? 'निश्चय ही समाजके लोग आकस्मिक अत्याचारोंसे मामरक्षाके ही लिये राज्यसंस्थाओं को जीवनबीमा कम्पनियों को दिये जानेवाली किस्तोंके रूप में