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१५० गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. काखने विषे. एमज (उप्पय के) उ पमिलेहण बे पगनी नपर करवी तेमांत्रण वाम पगे अने त्रण दक्षिण पगे करतांउ थाय, एवी रीतें सर्व मली (देह के) शरीरनी पमिलेहणा (पणवी सा के०) पच्चीश थाय ॥१॥
इहां यद्यपि श्रीआवश्यकवृत्ति तथा प्रवचन सारोक्षारादिकें पमिलेहणानो विशेष विचार कह्यो नथी तो पण इहां परंपराथी संप्रदाय समाचा रोयें स्त्रीशरीर वस्त्रे आवृत होय माटें एनेश रीरनो पमिलेहणा पच्चीशमांथीत्रण मस्तकनी, त्रण हृदयनी अने बे पासाना खंनानी चार,एवं दश पमिलेहणा न होय शेष पनर होय तथा वली साध्वीने तो नघामे माथे क्रिया करवानो व्यवहार ने माटें तेने मस्तकनीत्रण पमिलेहणा होय शेष सात न होय बाकी अढार पमिले हणा होय.
ए पमिलेहणा जे, ते यद्यपि जीवरकानी कारणनत नव्य जीवनं ने एम तीर्थंकरनी आ ज्ञा तो पण मनरूप मांकमाने नियंत्रबा सारु