Book Title: Chaityavandanadi Bhashya Trayam Balavbodh Sahit
Author(s): Devendrasuri
Publisher: Unknown

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Page 313
________________ श्री रत्नाकरपंचविंशिका. ३१३ दग्धोऽग्निना क्रोधमयेन दष्टो, उष्टेन लोनाख्यमहोरगण । ग्रस्तोऽनिमानाजग रेण माया, जालेन बघोऽस्मि कथं नजे त्वाम् ॥५॥ अर्थः-हुँ (क्रोधमयेन) क्रोध रूपी (अनि ना) अग्निवके (दग्धः) बळेलो (अस्मि) बु. वली (उष्टेन) पुष्ट एवा (लोनाख्यमहोरगेण) लोन्न रूपी मोटा सर्पवमे (दष्टः) मंखाएलो बं. वली (अनिमानाजगरण) अनिमान रूपी अजगरवके (ग्रस्तः) गळाएलो बु. वली (माया जालेन) माया रूपी जाळवमे (बः) बंधाये लो . तेथी (त्वां) तमने (कथं) शी रीते (नजे) हुं नजुं ? ॥ ५ ॥ कृतं मयामुत्र हितं न चेह, लोकेऽपि लोकेश सुखं न मेऽनूत् । अस्मादृशां केवलमेव जन्म, जिनेश जज्ञे जव पूरणाय ॥६॥ अर्थः-(लोकेश)हे लोकना ईश ? (मया)

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