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गुरुवंदन जाष्य अर्थसहित.
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पुस्तकनी स्थापना करवी, ( के० ) वली तेना जावें ( चित्तकम्मे के० ) चित्रकर्म ते गुरुनी मूर्तिनां चित्राम श्रालेख, अथवा गुरुनी काष्ठनी प्रतिमा ए पाठ श्री अनुयोगद्वार सूत्रधी लखीयें ढैयें, " से किंतं वशाला जसं वा श्ररके वा वरामए वा ककम्मे वा पोडकम्मे वा लेपकम्मे दा चित्तकम्मे वा गंधिकम्मे वा वैदिकम्मे वा पू रिकम्मे वा संघातिकम्मे वा एगे लेगे वा सनान वा असमान वा ग्वणा वविति ॥ एवी रीतें गुरुनी स्थापना करवी. ते बे प्रकारें जारावी ते क े. (प्रावमप्रावं के० ) एक सनावस्था पना ने बीजी प्रसन्नाव स्थापना तिदां गुरुनी मूर्ति तथा प्रतिमादिकनी आकार सहित जे स्था पना से सनाव स्थापना जालवी, अने श्राकार विभा अादिकनी जे स्थापना करवी ते सद्भाव स्थापना जाणवी, वली (गुरुवणा के० ) गुरुनी स्थापना ते एक ( इत्तर के० ) इत्वर ने बीजी ( यावकदा के० ) यावत् कथिका तेमां इत्वर ते थोमा काल लगें स्थापना रहे, जेम नोकरवाली