Book Title: Buddhiprabha 1965 07 SrNo 68
Author(s): Gunvant Shah
Publisher: Gunvant Shah

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Page 8
________________ ·] બુદ્ધિપ્રભા ( ४ ) [al. १०-१-१८६५ माता ने कहा- पुत्र ! ग्रहण की हुई पकड़ी हुई वस्तु कभी छोड़ना नहीं चाहिए | जिस मनुष्य के विचार अस्थिर होते हैं- समय २ पर बदलते रहते हैं, वह अपने जीवन में कभी सफल नहीं हो पाता । मूर्ख पुत्र ने गधे की पूंछ पकड़ ली । गधे ने जब स्वभाव का परिचय देना शुरू किया तो पुत्र रोने लगा । पड़ोसी ने हँसते हुए कहा - जान बूझकर मार क्यों खाता है, छोड़ क्यों नहीं देता ? पूछ पुत्र - मेरी माता ने कहा था कि पकड़ी हुई वस्तु छोड़ना नहीं चाहिए । हठाग्रही पुत्र ने माता के कहने का मतलब नहीं समझा और उसे बिल्कुल विपरीत अर्थ में ग्रहण किया । समन्वय के लिये यह आवश्यक है कि सत्याग्रह और दुराग्रह का भेद स्पष्ट हो । सत्याग्रह में विवेक होता है, दुराग्रह में जड़ता होती है | सत्याग्रही सोचता है— जो सत्य है वही मेरा है, किन्तु दुराग्रही स्वयं को ही सत्य मानता है व अपने अज्ञान से असत्य का पोषण करता है ।

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