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भट्टारक संप्रदाय
प्रतिष्ठाकतों को समाज का नेतृत्व अनायास ही प्राप्त होता था और उसी प्रतिष्ठा में यदि गजरथ भी हो तब तो संघपति का पद भी उसे विधिवत् दिया जाता था। सामाजिक मान्यता की इस अभिलाषा के साथ ही मुस्लिम शासकों की मूर्तिभंजकता की प्रतिक्रिया के रूप से भी जैन समाज में मूर्ति प्रतिष्ठा को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान मिला।
इस युग में प्रतिष्ठित की गई मूर्तियां साधारणत: पाषाण और धातुओं की होती थीं । धातु मूर्तियों का प्रमाण कुछ बढता गया है। तीर्थकर, नन्दीश्वर, पंचमेरू, सहस्रक्ट, सरस्वती, पद्मावती आदि यक्षिणी, क्षेत्रपाल और गुरु ये मूर्तियों के प्रमुख प्रकार थे । तीर्थंकरों की मूर्तियां पद्मासन और कायोत्सर्ग इन दो मुद्राओं में होती थीं। इन में पार्श्वनाथ की मूर्तियां सर्वाधिक संख्या में और विविध रूपों में पाई जाती हैं। नागफणा के ऊपर, नीचे, आगे या बाजू में होने से पार्श्वनाथ की मूर्तियों में यह विविधता पाई जाती है। शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरनाथ इन तीन तीर्थंकरों की संयुक्त मूर्ति को रत्नत्रयमूर्ति कहा जाता है। किसी एक तीर्थंकर की मुख्य मूर्ति के ऊपर और दोनों ओर अन्य तेईस तीर्थंकरों की छोटी मूर्तियां हो तो उसे चौबीसी मूर्ति कहा जाता है। इसी प्रकार अनन्तनाथ तक के चौदह तीर्थंकरों की संयुक्त मूर्तियां भी पाई जाती है। और इसका खास उपयोग अनन्तचतुर्दशी पूजामें किया जाता है । सामान्य तौर पर इस युग की तीर्थंकर मूर्तियां सादी होती थी। मूर्ति के साथ ही भामंडल, छत्र, सिंहासन आदि भी उकेरने की पहली पद्धति इस युग में प्रायः लुप्त हो गई। मूर्तियों का विस्तार दो इंच से बीस फुट तक विभिन्न प्रकार का रहा है फिर भी अधिकांश मूर्तियां एक फुट ऊंचाई की है। मूर्तियों का निर्माण मुख्य तौर पर राजस्थान में होता था।
___ यंत्रों की प्रतिष्ठा यह इस काल की विशेष निर्मिति है। दशलक्षण धर्म रत्नत्रय, षोडशकारण भावना, द्वादशांग आगम, नव ग्रह, ऋषिमंडल और सकलीकरण के यंत्र ये इन के विविध प्रकार थे। सभी धर्मतत्त्वों को मूर्तरूप में बांधने की प्रवृत्ति ही इस यंत्रप्रतिष्ठा का मूलभूत कारण है।
पहले तीर्थंकरों के साथ अनुचरों के रूप में यक्ष आदि देवताओं की मूर्तियों का निर्माण होता था । इस युग में उन की स्वतन्त्र मूर्तियां बनने लगीं । यक्षों में धरणेन्द्र और क्षेत्रपाल प्रमुख हैं। यक्षिणियों में चक्रेश्वरी, ज्वालामालिनी, कूष्मांडिनी, अंबिका और पद्मावती ये प्रमुख है। ज्ञान का प्रमाण जैसे कम होता गया
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