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भट्टारक संप्रदाय
इस ग्रन्थ के विभिन्न प्रकरणों के प्रारंभिक परिच्छेदों से ज्ञात होगा कि अधिकांश भट्टारक परम्पराओं के ऐतिहासिक उल्लेख नौवीं शताब्दी से प्राप्त होते हैं। इस लिए भट्टारकप्रथा अमुक आचार्य ने अमुक समय स्थापन की यह कहना असम्भव है। श्रुतसागर सूरि ने कहा है कि वसन्तकीर्ति ने यह प्रथा आरम्भ की है। किन्तु यह सिर्फ उस विशिष्ट परम्परा के लिए ही सही है। भट्टारक सम्प्रदाय की विशिष्ट आचरण पद्धतियाँ धीरे धीरे किन्तु बहुत पहले से ही अस्तित्व में आ चुकी थीं यह प्रस्तावना के अगले विभाग से स्पष्ट होगा। भट्टारक सम्प्रदाय में ये पद्धतियां तेरहवीं सदी के करीब स्थिर हुई इतना ही कहा जा सकता है।
३. परम्पराभेद और विशिष्ट आचरण साधुसंघ के साधारण स्थिति से यह परम्परा पृथक् हुई इस का पहला कारण वस्त्रधारग था। यह पद्धति बहुत पहले ही विवाद का कारण बन चुकी थी। भगवान पार्श्वनाथ की परंपरा के आचार्य केशी कुमारश्रमण ने गणधर इन्द्रभूति गौतम से इस पद्धति के विषय में प्रश्न किया था। इस के परिणाम स्वरूप तात्कालिक रूप से यह विवाद शान्त हुओ। किन्तु वस्त्रधारी साधुओं का अस्तित्व बना रहा । आगे चल कर आर्य महागिरि और शिवभूति के समय फिर यह विवाद जागृत होता गया और अन्त में जब आचार्य कुन्दकुन्द के नेतृत्व में संघ ने दिगम्बरस्व का सम्पूर्ण समर्थन किया तब हमेशा के लिए श्वेताम्बर और दिगम्बर ये भेद दृढ हो गये। इस के बावजूद भी दिगम्बरसम्प्रदाय में फिर वस्त्रधारण की प्रथा शुरू हुई। इसे मुस्लिम राज्य काल में और अधिक बल मिला और आखिर वह भट्टारकों के लिए अपवाद मार्ग के रूप में मान्य कर ली गई। व्यवहार में यद्यपि वस्त्र का उपयोग भट्टारकों के लिए समर्थनीय ठहरा दिया गया तथापि तत्व की दृष्टि से नमता ही पूज्य मानी जाती रही। भट्टारकपद प्राप्ति के समय कुछ क्षणों के लिए क्यों न हो, नम अवस्था धारण करना आवश्यक रहा । कुछ भट्टारक मृत्यु समीप आने पर नग्न अवस्था ले कर सल्लेखना का स्वीकार करते रहे। नमता के इस आदर के कारण ही भट्टारकपरम्परा श्वेताम्बर सम्प्रदाय से पृथक्ता घोषित करती रही।
भट्टारकपरम्परा का दूसरा विशिष्ट आचरण मठ और मन्दिरों का निवासस्थान के रूप में निर्माण और उपयोग था। इसी के अनुषंग से भूमिदान का
१ लेखांक २२५ देखिए. २ उत्तराध्ययन सूत्र, केसीगोयमिन्न अध्ययन. ३ देखिए लेखांक १९०
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