Book Title: Bhagwati Sutra Part 06
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 764
________________ ७६४ भगवतीसूत्रे वालाश्चापि भवथ, ततः खलु ते अन्ययथिकास्तान् स्थविरान् भगवत एवम् अवादिषुः-केन कारणेन वयम् अदत्तं गृहीमो यावत् एकान्तबालाश्चापि भवामः ? ततः खलु ते स्थविरा भगवन्तस्तान् अन्ययथिकान् एवम् अवादिषुः-ययं खलु आर्याः ! दीयमानम् अदत्तं तदेव यारत् गृहपतेः खल, नो ग्यलु तत् युष्माकम् , तेन खलु ययम् अदत्तं गृहणीथ, तदेव यावद् एकान्त वालाश्चापि भवथ ।। अ० १ ॥ अदिन्न साइज्जह. तएणं अज्जो तुम्भे अदिन गेण्हमाणा जाव एगंतबाला यावि अवह) हे आर्यो! तुम लोग विना दी हुई वस्तु को लेते हो, चिना दी हुई वस्तु का आहार करते हो, और विना दी हुई वस्तु को दूसरों को ग्रहण करने की अनुमति देते हो। इसलिये तुम लोग असयत और अविरत बने रहकर त्रिविध प्राणातिपात आदि का त्रिविधरूपसे परित्याग नहीं करने के कारण एकान्त वाल हो (तएणं ते अन्नउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी-(केण कारणेणं अम्हे अदिन्न गेण्हामो, जाव एगंतबालायावि भवामो) इसके बाद उन अन्ययूथिकों ने उन ग्थविर भगवतों से ऐसा पूछा-हे अर्यो। हम लोग किस कारणे से विना दी हुई वस्तु को ग्रहण करनेवाले कहे गये हैं यावत् एकान्तबाल कहे गये हैं। (तएणं ते थेरे भगवते ते अन्नउथिए एवं वयासी) इस प्रकार उन अन्ययूथिकों के पूछने पर उन स्थविर भगवंतों ने उनसे उत्तर के रूप में इस प्रकार से कहा- (तुज्झे णं भुंजह, अदिन्नं साइज्जह, तएणं अज्जो ! तुम्भे अदिन्नं गेण्डमाणा जावं एगंतवाला यावि भवह) आर्या! तमे हामी मत परतुने अड] ४२॥ छ। मने અદત્ત વસ્તુ લેવાની બીજાને અનુમતિ આપે છે. તેથી હે આર્યો ! તમે લેકે અસંત અને અવિરત દશામાં ચાલુ રહીને ત્રિવિધ પ્રાણાતિપાત આદિનુ ત્રિવિધરૂપે સેવન કરો छ।. तनी परित्याग नही २वाथी तमे सीतमा छ।) (तएणं ते अन्नउत्थिया ने थेरे भगवंते एवं वयासी केण कारणेणं अम्हे अदिन्नं गेण्डामो, जाव एगंतवाला यावि भवामो?) त्यारे ते मन्यता छोय ते स्थविर मग ताने मेवा પ્રશ્ન પૂછ કે હે આર્યો ! તમે અમને અદત વસ્તુને ગ્રહણ કરનારા યાવત એકાન્તબાલ An र ४ छ। ? (तएणं ते थेरे भगवंते ते अन्नउत्थिए एवं वयासी) त्यारे ते स्थाप२ साप ताय ते मन्यतापान मा प्रभाथे यु-(तुज्झे णं भंते ! अज्जो ! दिज्जमाणे अदिन्ने तं चेव जाव गाहावइस्स, णो खलु तं तुझे, तएणं तुम्भे अदिन्नं गेण्हह, तंचेव. जाव एगंतबाला यावि भवह')

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