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यह वात सुनकर मरीचि को वैराग्य उत्पन्न हो गया और वह मुनि बन कर साधना करने लगा । अनेक प्रकार की धर्म-साधनाएं और तपस्याएं करके मरीचि अपनी आयु पूर्ण करने के पश्चात् ब्रह्मदेवलोक मे जा पहुचा।
कौशिक के रूप में ब्रह्मलोक के सुखो का उपभोग करते हुए जव उस जीव ने देवलोक की आयु पूर्ण कर लो, तब वह कोल्लाक नामक ग्राम मे एक ब्राह्मण के घर जन्मा। वहा इसका नाम 'कौशिक' रखा गया। कौशिक ने इस जन्म मे दण्डी सन्यासी का वेश धारण किया और तप-जप की साधना करते हुए अपनी आयु समाप्त होने पर स्वर्ग सिधार गए।
त्रिपृष्ठ वासुदेव के रूप में इस प्रकार अनेक जन्मो मे भ्रमण करते हुए महावीर के जीव ने त्रिपृष्ठ वासुदेव के रूप में जन्म लिया।
त्रिपृष्ठ बड़ा बलवान और शक्तिशाली राजा था। एक दिन उस के दरवार मे गाने वाले कुछ गवैये आये । राजा ने कहा-हम तुम्हारा गायन अपनी शय्या पर लेटे हुए ही सुनेंगे । कार्यक्रम निश्चित हो गया।
राजा ने अपने शय्या-पालक को आज्ञा दी कि जब मैं गाना सुनते-सुनते सो जाऊ, तव तुम गाना वद करवा कर कलाकार को विदा कर देना। गायन के स्वर गूजने लगे और राजा को नीद आ गई। संगीत मे मस्त शय्यापालक ने सगीत वद नहीं करवाया । सगीत चलता ही रहा, अत राजा की नीद टूट गई । उसने क्रुद्ध होकर शय्या-पालक से पूछा 'अव तक सगीत क्यो चल रहा है ? उसने आज्ञा-भंग का अपराध ठहराते हुए राज-मद मे डूब कर शय्या-पालक के कानो मे गरम सिक्का डलवाकर शय्यापालक को मारने का कठोर आदेश दिया । कहते हैं 'तप से राज और राज से नरक' के नियम के अनुकूल
[च्यवनकल्याणक