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कर देना ठीक है।' यह सोचकर वे सामुद्रिक शास्त्र को नदी में प्रवाहित करने ही वाले थे कि इतने में भगवान महावीर की चरण-वन्दना करने आ रहे देवराज शकेन्द्र ने अवधिज्ञान से यह सारी स्थिति समझ ली और उन्होने उसे गास्त्र को फेकने से रोकते हुए कहा___ "भद्र | सामुद्रिक शास्त्र सर्वथा सत्य है, इस मे चक्रवर्ती होने के जो चिन्ह लिखे हैं वे भी ठीक है परन्तु आपने गम्भीरता से इनका अभिप्राय नही समझा जिस व्यक्ति के चरणो मे सामुद्रिक-गास्त्र-वणित ये चिन्ह उपलब्ध हो,यदि वह गृहस्थ-जीवन मे रहता है तो वह छ.खण्डो का नाथ चक्रवर्ती होता है,परन्तु यदि वह गृहस्थाश्रम को छोड़कर सयम-साधना के क्षेत्र मे पा जाता है तो वह तीन जगत् का पूज्य, वन्दनीय, सुरासुरों का सेव्य और चतुर्विध सघ का सस्थापक तीर्थकर होता है। तीर्थकर भगवान के शरीर का पसीना दुर्गन्व-रहित, श्वासोच्छवास सुगन्धित और रुधिर गाय के दूध के समान सफेद और मधुर होता है। ये सामान्य सन्त नहीं है। ये परम त्यागी, वैरागी शान्ति के अमर सन्देश-वाहक, तथा देव-मनुष्यो के पाराव्य, पूज्य तीर्थकर भगवान महावीर हैं। आजकल इनका साधनाकाल चल रहा है, इसीलिये इनका वास्तविक तेजस्वी और वर्चस्वी स्वरूप तुम्हारे चर्म चक्षुत्रो से ओझल हो रहा है।
इतना कह कर शक्रेन्द्र महाराज ने सामुद्रिक शास्त्री के मनोरथ की पूर्ति करते हुए उन्हे सुवर्णादि देकर सन्तुष्ट किया और सामुद्रिक शास्त्री तथा शक्रेन्द्र दोनो ही भगवान महावीर के पावन चरणो मे वन्दना, नमस्कार करके अपने-अपने स्थानो को चले गए। शूलपाणि यक्ष का उद्धार और दश स्वप्न
अव भगवान महावीर अस्थिकग्राम मे पधारे । सन्ध्याकाल हो गया था। गाव के बाहर शूलपाणि नामक यक्ष का मन्दिर था। भगवान उसी मे विराजमान हो गए । गाव वालो ने प्रभु से प्रार्थना की-"प्रभो। मन्दिर का यक्ष बडा क्रूर है, वह रात्रि मे यहा पर किसी को ठहरने नहीं देता, अत आप किसी दूसरे स्थान पर ठहर जाएं।" सायकाल होने पर मन्दिर का पुजारी आया तो उसने भी प्रभु से मन्दिर को छोड देने का आग्रह किया, परन्तु भगवान महावीर को अपने प्रात्मवल पर पञ्चकल्याणक )