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शोभा ही थे, विन्नु महावीर के समवसरण की शोभा ने उनकी गोमा को क्षीण कर दिया।
कहा जाता है कि इन्द्रभूति महावीर को परास्त करने तथा उन्हें नीचा दिखाने के लिये ही उनके समवसरण में गये थे, किन्तु मैं उनमें सहमत नहीं है। मैं ऐसा मानता है कि भगवान महावीर के तपस्लेज और अव्यात्म-तेज के प्रखर प्रताप को देख कर उन्द्रभूति का अहसार पहले ही विलिन हो गया था, उनके मन में महावीर के प्रति एक सहज भक्ति जागृत हो गई थी। अनेक जन्मो का प्रगुप्त स्नेह गहमा उनके मानस मे गगा के निर्मल प्रवाह की तरह उमः पड़ा था। किनी विराट् सत्य की उपलब्धि के लिये वे ही वहा पाए थे। यदि इन्द्रभूति के हृदय मे अहकार और अभिमान भरा होना, यदि वे विजय की अभिलापा एव महावीर को परास्त करने का सकल्प अपने मन में समाये हुए वहा पाते तो वे अपनी गका के प्रति दिये हुए महावीर के ममायानो को वे एकदम ठुकरा देते, भुला देते।
इन्द्रभूति को अपने सामने आए हुए देखकर भगवान ने कहा"इन्द्रभूति । क्या तुम्हारे मन मे जीव के अस्तित्व के सम्बन्ध में मगय
भगवान महावीर ने जब इन्द्रभूति गौतम के मन के समय का उद्घाटन किया तो गौतम ने रमे महज भाव से स्वीकार कर लिया
और महावीर की सर्वजता के आगे मस्तक झुका दिया। जिसके मन मे छल और अहकार हो वह इस प्रकार लाखो लोगो के सामने अपनी दुर्वलता को स्वीकार नही कर मकता । इससे सिद्ध होता है कि गौतम अपने अहकार का परिधान उतार कर ही भगवान के समवसरण में आए थे।
इसी प्रकार अग्निभूति, वायुभूति तथा अन्य , पण्डितगण भी भगवान महावीर के समवसरण मे श्रद्धा और प्रेम से प्राप्लावित हृदय लेकर पहुंचे। उनके मन भी भिन्न-भिन्न प्रकार को शकाओ से आवृत थे। जैसे।क- 'अग्निभूति को यह सन्देह था कि कर्म का फल होता है या
[ केवल-ज्ञान-कल्याणक
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