Book Title: Bhagavana Mahavira ke Panch Kalyanaka
Author(s): Tilakdhar Shastri
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti

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Page 172
________________ इसी दृष्टि से जनदर्शन मे निर्वाण का अर्य किया गया है-'समस्त कर्मकृत विकारो से रहित होना', सकल सन्तापो से रहित हो कर' आत्यन्तिक सुख पाना, समस्त द्वन्द्वो से उपरत होना । क्योकि जब तक आत्मा मे काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, अहकार, माया, राग-द्वीप आदि विकार रहेगे, तब तक निर्वाण नहीं हो सकेगा। निर्वाण के लिये जैन दर्शन की पहली शर्त है-'समस्त कर्मों का क्षय ।'५ क्योकि रागद्वप आदि विकारो से कर्मबन्ध का क्षय नही होना है। दोनो मे कार्य-कारण भाव सम्बन्ध है। रागद्वे पादि का नाश होते ही कर्मो का क्षय हो जाता है और समस्त कर्मों के क्षय होने पर प्रात्मा अपने वास्तविक स्वरूप मे अवस्थित होकर परम शान्ति को प्राप्त होता है, फिर न तो कर्मो के कारण प्राप्त होनेवाला शरीर होता है, न नाम, रूप, आकार तथा शरीर जनित सुख-दुःख, मोह, अहकार, जन्म-मरण, जरा, व्याधि, इन्द्रियजनित विषय, क्षुधा, तृपा,निद्रा, उपसर्ग, सर्दी, गर्मी आदि होते है । यही निर्वाण की वास्तविक स्थिति होगी। अत्यधिक अविनाशी सुख की अवस्था ही निर्वाण है। जव शरीर ही सदा के लिये मिट जाता है, तब शरीर के कारण होने १ 'निर्वाण कर्मकृत विकाररहितत्वे' प्रा., चूणि ४ अ २ 'सकलसतापरहितत्वे'। ३ 'सकलकर्मक्षयजे प्रात्यन्तिके सुखे'-प्रोप० ४ सर्वद्वन्द्वोपरतिभावे सूत्र० १, २ ० १, अ १ ५ कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्ष.'-तत्त्वार्थ० । ६ 'पुस स्वरूपावस्थान मेति माख्या, प्रवक्षते' ७ निर्माण शान्ति परमाम्'गीता ८ 'रागद्वेप-मद-मोह-जन्म-जरा रोगादि दुखक्षयरूपा। सतो विद्यमानस्य जीवस्य विशिष्टा काचिदवस्था निर्वाणम् ॥' ९ णवि दुक्ख, णवि मुक्ख, णवि पीटा व विज्जदे वाहा । णवि मरण, णवि जणण, तत्थेव य होइ णिव्वाण ॥ णवि इदिय-उवमग्गा, णवि मोहो, विम्यिो य णिद्दा य । ण य तिण्हा व छुहा, तत्येव हवदि णिव्वाण ||-नियमसार १७८/१७९ १४२ ] [ निर्वाण-कल्याणक

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