Book Title: Bhagavana Mahavira ke Panch Kalyanaka
Author(s): Tilakdhar Shastri
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti

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Page 171
________________ यद्यपि निर्वाण का शब्दश अर्य होता है-जिम में से बात (हवा) निकल जाय ।' दोपक का वुझ जाना, दीपक का निर्वाण है। दीपक को कोई फूक मार कर वुझा देता है तो उसकी ज्योति कहां चली जाती है ? वह मिट तो नही सकती है और मिटती भी नही है, अपितु वह ससीम से असीम वन जाती है। जैनदर्शन का कहना हैदीपक का वुझ जाना उसकी ज्योति का मिट जाना नही है, रूपान्तर या परिणामान्तर हो जाना है, क्योकि जो है वह मिट नही सकता, अत: जीव का निर्वाण अर्थात् शान्त हो जाना भी उसका मिट ज़ानाअस्तित्वहीन हो जाना नही है, अपितु विभाव-परिणति से सदा के लियेस्वभावपरिणति को प्राप्त हो जाना ही निर्वाण है। वैदिक शब्दो मे इसे यो कहा जा सकता है - "आत्मा का अपने अहत्व, ममत्व, देह, गेह आदि सब को खो कर महाविराट् मे मिल कर परमात्मरूप हो जाना ही निर्वाण है।" जहा व्यक्ति विराट मे विलीन हो जाता है, वहा उसके जीवन मे अहत्व, ममत्व, मोह, स्वार्थ, कषाय, राग-द्वष आदि कुछ भी शेष नही रह जाता। ऐसी रूप-भिन्नता को नाश नही कहा जा सकता, वह तो आत्मा का अपने विराट-शुद्ध स्वरूप मे लीन हो जाना है। इन्द्रिया, मन, शरीर, अहकार, बुद्धि, चित्त आदि जो अनात्मभूत वस्तुए हैं. उन सब से मुक्त होकर स्व-स्वरूपावस्थान ही निर्वाण है। प्राचारांगसत्र की चूणि मे निर्वाण का अर्थ-'अपने स्वरूप मे स्थित होना' बताया गया है। अपने स्वरूप मे स्थित होने के लिये सबसे पहले साधक को प्रात्मा पर लगे हुए विकारो, यावरणो एव उपाधियो से रहित होना अत्यन्त आवश्यक है। १ निर्गतो वात यस्मात्तन्निर्वाणम् अथवा निवृत्तिमित प्राप्त निर्वाणम् । २ जह दीवो निव्वाणो परिणामान्तरमिनो तहा जीवो । ___ भणड परिणिबाणो पत्तोऽणावाह परिणाम । ३ परमात्मनि जीवात्मलय. सेति निदण्डिन, । लयो लिंगव्ययो, जीवनाशश्च नेप्यते ॥” ४ 'निर्वाण प्रात्मस्वास्थ्ये'-मा चूणि ४ अ. पञ्चकल्याणक] [ १४१

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